राष्ट्रीय राजनीति की पहली सीढ़ी के रूप में स्थापित होती छात्र राजनीति
हमारे स्वतंत्रता के महानायकों ने भी छात्रों की देश के प्रति भूमिका का पुरजोर समर्थन किया था। हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी ने 1922 में छात्रों को सरकारी स्कूल से अलग होकर अंग्रेजी हुकूमत का असहयोग करने को कहा था।
"शिक्षार्थ आइए,सेवार्थ जाइए" अक्सर विश्वविद्यालयों महाविद्यालयों और विद्यालयों के द्वार पर लिखा रहता है। शिक्षार्थ का अर्थ- शिक्षा ग्रहण करने वाले और सेवार्थ का अर्थ- सेवा करने वाले। किंतु यहां हमें शिक्षा एवं सेवा का सही अर्थ समझना है क्योंकि बात यहां छात्रसंघ की राजनीति की है।
कई तथाकथित बुद्धिजीवियों और विद्वानों का कहना है कि छात्रों को राजनीति से दूर रहना चाहिए ताकि वे अध्ययन कर सकें, शिक्षा प्राप्त कर सकें और भविष्य में देश को संभाल सकें।
तब छात्र राजनीति पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है। क्या छात्र राजनीति देश के भविष्य के लिए नकारात्मक सिद्ध होती है? क्या छात्र राजनीति से छात्र अपने लक्ष्य से भटक जाते हैं? इन प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए हमें शिक्षा और सेवा का सही अर्थ समझना होगा। शिक्षा केवल वह नहीं है जो केवल किताबी ज्ञान पर आधारित हो, जो चंद किताबों के पढ़ने से आती हो और जो केवल विद्यालयी परीक्षाओं तक सीमित हो। सच्चे अर्थों में शिक्षा का अर्थ है 'समाज से सीखना और उसी सीख को समाज में वापस कर देना'। और तब छात्र राजनीति अपनी भूमिका अदा करती है। छात्र समाज में उपस्थित कुरीतियों का विरोध करते हैं, अन्याय, असमानता, गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी के प्रति अपना विरोध प्रकट करते हैं, महिलाओं के सम्मान और उनके अधिकारों के लिए आवाज बुलंद करते हैं। साथ ही साथ अगर सेवा की बात करें तो क्या वे इन मुद्दों पर आवाज उठा कर देश की सेवा में भागीदारी नहीं निभा रहे हैं, क्या यही छात्र-छात्राएं देश के सतत विकास में भूमिका अदा नहीं कर रहे हैं। हमें समझना है कि यह सभी छात्र-छात्राएं ही आगे चलकर देश को चलाएंगे। यह छात्र-छात्राएं ही लोकतंत्र को यूं ही सततता से बनाए रखेंगे। यही भविष्य में संविधान की आवाज बनेंगे।
विश्वविद्यालयों में प्रतिवर्ष होने वाले छात्रसंघ के चुनाव उन छात्रों को न केवल उस संस्थान के प्रति जिम्मेदार बनाते हैं, उन्हें देश के प्रति भी सजग बनाते हैं।
हमारे स्वतंत्रता के महानायकों ने भी छात्रों की देश के प्रति भूमिका का पुरजोर समर्थन किया था। हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी ने 1922 में छात्रों को सरकारी स्कूल से अलग होकर अंग्रेजी हुकूमत का असहयोग करने को कहा था।
वहीं दूसरी ओर भगत सिंह ने भी 1929 में एक लेख में लिखा था कि "सभी मानते हैं कि हिन्दुस्तान को इस समय ऐसे देश-सेवकों की जरूरत हैं, जो तन-मन-धन देश पर अर्पित कर दें और पागलों की तरह सारी उम्र देश की आजादी के लिए न्योछावर कर दें। लेकिन क्या बुड्ढों में ऐसे आदमी मिल सकेंगे? क्या परिवार और दुनियादारी के झंझटों में फँसे सयाने लोगों में से ऐसे लोग निकल सकेंगे? यह तो वही नौजवान निकल सकते हैं जो किन्हीं जंजालों में न फँसे हों और जंजालों में पड़ने से पहले विद्यार्थी या नौजवान तभी सोच सकते हैं यदि उन्होंने कुछ व्यावहारिक ज्ञान भी हासिल किया हो। सिर्फ गणित और ज्योग्राफी का ही परीक्षा के पर्चों के लिए घोंटा न लगाया हो।"
सुभाष चंद्र बोस ने भी 1929 में ही लाहौर में छात्रों को संबोधित करते हुए कहा था कि "आज के छात्रों का आंदोलन गैर-जिम्मेदार लड़के-लड़कियों का आंदोलन नहीं है। यह पूरी तरह जिम्मेदारों का आंदोलन है और ये नौजवान लड़के-लड़कियां एक बड़े आदर्श, अपने चरित्र का विकास करने तथा अपने देश की प्रभावी तथा उपयोगी सेवा करने से प्रेरित हैं।" अतः सुभाष चंद्र बोस भी छात्र राजनीति के पुरजोर पक्ष में थे और उन्होंने छात्र-छात्राओं को राजनीति क्रियाओं में हिस्सेदारी लेने के लिए प्रोत्साहित किया था।
1974 ईस्वी में जयप्रकाश नारायण आंदोलन में भी छात्र ही प्रथम दृष्टया भूमिका में थे, वही गुजरात और बिहार में संपूर्ण क्रांति के सूत्रधार थे।
(इंडिया सिंस इंडिपेंडेंस, पेज-313)
छात्र राजनीति का इतिहास भी बड़ा पुराना रहा है क्योंकि नीतियों के ज्ञाता चाणक्य ने भी भारतवर्ष की सिकंदर के आक्रमण से रक्षा के लिए तक्षशिला के छात्रों का ही सहारा प्राप्त किया था।
वर्तमान परिस्थितियों को देखें तो भारत में हो रहे किसान आंदोलन में छात्र भी अपनी भूमिका निभा रहे हैं । देश के कई राज्यों हरियाणा, उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान तेलंगाना, दिल्ली आने से छात्र-छात्राएं आ आकर सरकार द्वारा लाए गए तीन कृषि कानूनों के विरोध में दिल्ली बॉर्डरों पर चल रहे आंदोलन में किसानों का समर्थन कर रहे हैं।
किसान छात्र पंचायतों का आयोजन भी किया जा रहा है इसमें देश के कई बड़े विश्वविद्यालयों जैसे दिल्ली विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, हैदराबाद विश्वविद्यालय,अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय आदि के छात्र छात्राएँ शामिल हो रहे हैं। यहां तक कि न्यूयॉर्क से भी छात्रों का एक दल आंदोलन में शामिल हुआ।
(https://www.jagran.com/haryana/hisar-kisan-agitation-will-now-prepare-for-kisan-students-panchayat-at-tikri-border-and-will-be-organized-on-7th-21430383.html)
वहीं दूसरी ओर कई छात्रसंघों ने कृषि कानूनों का समर्थन किया और किसान आंदोलन के विरोध में अपना विरोध भी जताया और अपने विचार प्रस्तुत किए।
गुजरे वर्ष जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शुल्क-वृद्धि के संदर्भ में छात्रों का विरोध हो अथवा सरकार द्वारा लाए गए सी.ए.ए.तथा भविष्य में आ सकने वाली एन.आर.सी. के पक्ष या विपक्ष में उनके विचार हों। ये छात्र ही हैं, जो देश में बड़ी महत्वता से पक्ष या विपक्ष की भी भूमिका निभाते हैं एवं सही और गलत मुद्दों पर सरकार का समर्थन और असमर्थन करते हैं ।
कोरोना काल के दौरान भी छात्र-छात्राओं ने अपनी भूमिका अदा की। कई ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स और सोशल मीडिया के माध्यम जागरूकता अभियान चलाएं और लोगों को कोरोनावायरस से सावधान और सुरक्षित रहने के उपाय भी बताए।
वहीं भारत में बढ़ती बेरोजगारी पर भी छात्र कोरोना महामारी के दौरान सड़कों पर नहीं उतरे बल्कि ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स और सोशल मीडिया पर ही अपने विचार रखे और टि्वटर ट्रेंड कराते रहे। इस तरह छात्र बड़े पैमाने पर अपना विरोध दर्ज कराते रहे हैं।
न केवल भारत में बल्कि विश्वभर में छात्र,राजनीति में महती भूमिका अदा करते हैं। चाहे 2014 की हांगकांग की लोकतंत्र की लड़ाई में जोशुआ की भूमिका हो या महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई के लिए मलाला यूसुफज़ई को 17 वर्ष की उम्र में शांति का नोबेल पुरस्कार का मिलना हो अथवा कुछ दिनों पहले स्वीडिश पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटाथनबर्ग की पर्यावरण की रक्षा तथा वैश्विक तपन के संदर्भ में बड़े-बड़े देशों के लिए ललकार रही हो या फिर भारत के किसान आंदोलन पर उनका एक ट्वीट रहा हो।
यह छात्र ही हैं जो न केवल किसी देश विशेष के लिए बल्कि संपूर्ण विश्व के समस्याओं के प्रति चिंतित हैं और इन समस्याओं से दो-दो हाथकर निपटने को तैयार हैं ।
परंतु एक प्रश्न यह भी है कि ये छात्र ही राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक मामलों में भागीदारी क्यों निभाए? ऐसा इसलिए है क्योंकि यह नौजवान छात्र-छात्राएं ही हैं जो गृहस्थ जीवन से मुक्त हैं और स्वतंत्र सोचने के लिए इनके लिए कोई बाधाएं नहीं हैं। ये देश के मुद्दों पर सोच-विमर्श करने के लिए अपनी पढ़ाई को बड़ी ही साफगोई से उपयोगिता में लाते हैं। वे वर्तमान और भावी समाज के मुद्दों पर अपने विचार रखते हैं और युवा सोच से राजनीति को भी सदैव युवा बनाये रखते हैं, एवं देश और विश्व के सतत विकास में अपनी महती भूमिका अदा करते हैं ।
By:- सुलभ यादव