Book Review: गुनाहों का देवता:- किसका गुनाह और कौन देवता
ये लेख एक कोशिश है धर्मवीर भारती के उपन्यास को समझने की और उसकी समीक्षा करने की।
पुस्तक का नाम: गुनाहों का देवता
लेखक का नाम: धर्मवीर भारती
प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ
हिंदी साहित्य के पाठको में जो उत्साह धर्मवीर भारती के उपन्यास " गुनाहों के देवता " के लिए है वो अद्वितीय नहीं भी माना जाए तो कम ही लेखकों को नसीब हुआ है। उपन्यास की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उपन्यास हमारे समय में भारतीय भाषाओं की सबसे अधिक बिकने वाली लोकप्रिय साहित्यिक पुस्तकों की पहली पंक्ति में है।
हिंदी समय वेबसाइट धर्मवीर भारती के परिचय में लिखते है:
आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रमुख लेखक, कवि, नाटककार और सामाजिक विचारक थे। वे अपने समय की प्रख्यात साप्ताहिक पत्रिका धर्मयुग के प्रधान संपादक भी थे। डॉ. धर्मवीर भारती को 1972 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। उनका उपन्यास 'गुनाहों का देवता' सदाबहार रचना मानी जाती है। 'सूरज का सातवां घोड़ा' को कहानी कहने का अनुपम प्रयोग माना जाता है, जिस पर श्याम बेनेगल ने इसी नाम की फिल्म बनायी। अंधा युग उनका प्रसिद्ध नाटक है। इब्राहिम अलकाजी, राम गोपाल बजाज, अरविन्द गौड़, रतन थियम, एम के रैना, मोहन महर्षि और कई अन्य भारतीय रंगमंच निर्देशकों ने इसका मंचन किया है।
इससे पहले की हम उपन्यास के विषय में बात करें और उस पर हुए विमर्श को समझने की कोशिश करें, हमे ये याद रखना चाहिए उपन्यास के लेखक धर्मवीर भारती द्वारा उपन्यास शुरू होने से पहले क्या लिखा गया है:
"मेरे लिए इस उपन्यास का लिखना वैसे ही रहा है जैसा पीड़ा के क्षणों में पूरी श्रद्धा से प्रार्थना, और इस समय भी मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मैं वही प्रार्थना मन-ही-मन दोहरा रहा हूँ, बस..."
उपन्यास की पृष्ठभूमि इलाहाबाद पर आधारित है, जिसके मुख्य पात्र है : प्रोफेसर शुक्ला, उनकी बेटी सुधा और प्रोफेसर के शिष्य चंदर। इनके अलावा कहानी में अन्य पात्र भी हैं जो अपनी प्रासंगिता के अनुसार आते है कहानी में।
कहानी में चंदर एक गरीब परिवार का लड़का है जिसकी मां की मृत्यु के बाद पिता ने दूसरा विवाह कर लिया है और सौतेली मां से अनबन के कारण चंदर इलाहाबाद आ जाता है। यहां पर चंदर को प्रोफेसर शुक्ला मिलते है जो चंदर की मेधा से प्रभावित होकर चंदर को अपना शिष्य बना लेते है और उसके अध्ययन और जीवन के हर पड़ाव में सहायता करते है और प्रोफेसर शुक्ला की बेटी है सुधा। सुधा जिसकी मां के स्वर्गवास के बाद उसके पिता प्रोफेसर शुक्ला उसे अपनी बहन के पास गांव भेज देते है और फिर बाद में वापस अपने पास बुला लेते हैं जब उनकी बहन सुधा के विवाह करवाने की बात पर ज़ोर देने लगती हैं।
गांव से आने के बाद कैसे सुधा, अपने पिता के शिष्य चंदर पर निर्भर होती है, कैसे उसकी दोस्ती चंदर से होती है और कैसे चंदर उसके जीवन को अपने तरीके से केंद्रित करने लगता है और अंत में कैसे सुधा की इच्छा के खिलाफ चंदर उसका विवाह करवा देता है और फिर सुधा कैसे चंदर से दूर अपने ससुराल में जमने की कोशिश करने के बाद भी खुश नहीं रहती और अंत में सुधा .....
उपन्यास की एक किरदार है पम्मी और उसे जब चंदर छूता है तब उसे कुछ इन शब्दो में लेखक लिखते है :
"औरत अपने प्रति आने वाले प्यार और आकर्षण को समझने में चाहे एक बार भूल कर जाये, लेकिन वह अपने प्रति आने वाली उदासी और उपेक्षा को पहचानने में कभी भूल नहीं करती। वह होठों पर होठों के स्पर्शों के गूढ़तम अर्थ समझ सकती है, वह आपके स्पर्श में आपकी नसों से चलती हुई भावना पहचान सकती है, वह आपके वक्ष से सिर टिकाकर आपके दिल की धड़कनों की भाषा समझ सकती है, यदि उसे थोड़ा-सा भी अनुभव है और आप उसके हाथ पर हाथ रखते हैं तो स्पर्श की अनुभूति से ही जान जाएगी कि आप उससे कोई प्रश्न कर रहे हैं, कोई याचना कर रहे हैं, सान्त्वना दे रहे हैं या सान्त्वना माँग रहे हैं। क्षमा माँग रहे हैं या क्षमा दे रहे हैं, प्यार का प्रारम्भ कर रहे हैं या समाप्त कर रहे हैं। स्वागत कर रहे हैं या विदा दे रहे हैं। यह पुलक का स्पर्श है या उदासी का चाव और नशे का स्पर्श है या खिन्नता और बेमानी का।"
उपन्यास जहां एक ओर चंदर सुधा के बीच एक निश्चल प्रेम को दिखाने की चेष्टा करता है तो वही चंदर ओर पम्मी के बीच संबंधों को प्लेटोनिक लव और सेक्स के दृष्टिकोण से देखने का नजरिया भी प्रस्तुत करता है। जहां सुधा एक भोली लड़की के रूप में नज़र आती है जो चंदर की हर बात मानती है और पितृसत्ता के विरुद्ध कोई संघर्ष कोई गुस्सा प्रस्तुत नही करती है जिससे उसके जीवन में बदलाव आए वो उल्टा पितृसत्ता को मूक सहमति देकर पोषित करते हुए नजर आती है। वही दूसरी तरफ़ पम्मी का किरदार है जो प्रैक्टिकल है यथार्थ को जानती है, जो विवाह की संस्था को नहीं मानती है , अपने पति से तलाक लेती है, अपने तरीके से अपनी आजादी से जीने की कोशिश करने का प्रयास करती है। उपन्यास अति भावुकता और उससे जन्में कोरे आदर्शवाद से भरा हुआ है जिसकी कहानी का अंत नीचे लिखी लाइनों से होता है।
इस उपन्यास की आखिरी लाइनें हैं... "सितारे टूट चुके थे। तूफान खत्म हो चुका था। नाव किनारे पर आकर लग गयी थी- मल्लाह को चुपचाप रुपये देकर बिनती का हाथ थामकर चन्दर ठोस धरती पर उतर पड़ा...मुर्दा चाँदनी में दोनों छायाएँ मिलती-जुलती हुई चल दीं। गंगा की लहरों में बहता हुआ राख का साँप टूट-फूटकर बिखर चुका था और नदी फिर उसी तरह बहने लगी थी जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो।"