Book Review: टोपी शुक्ला
इंसान हिंदू है या मुसलमान ये कौन बताएगा और कैसे पता चलेगा, धर्म की पहचान ही क्या व्यक्ति का अस्तित्व है?
पुस्तक का नाम: टोपी शुक्ला
लेखक का नाम: राही मासूम रज़ा
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
आम तौर पर साहित्य में हर लेखक की इच्छा होती है वो महाकाव्य लिखे जिसे सब पढ़े जिससे उसे हर्ष हो लेकिन शायद राही मासूम रज़ा द्वारा लिखा गया उपन्यास "टोपी शुक्ला" पहला उपन्यास है जिसके लिखे जाने से लेखक खुश नही हुआ, इस बारे ने लेखक लिखते है:
"मुझे यह उपन्यास लिख कर कोई ख़ास खुशी नहीं हुई क्योंकि आत्महत्या सभ्यता की हार है। परन्तु टोपी के सामने कोई और रास्ता नहीं था। यह टोपी मैं भी हूं और मेरे ही जैसे और बहुत से लोग भी हैं। हम लोग कहीं न कहीं किसी न किसी अवसर पर “कम्प्रोमाइज़” कर लेते हैं और इसीलिए हम लोग जी रहे हैं। टोपी कोई देवता या पैग़म्बर नहीं था, किंतु उसने “कम्प्रोमाइज़” नहीं किया और इसीलिए आत्महत्या कर ली। परन्तु आधा गाँव की ही तरह यह किसी एक आदमी या कई आदमियों की कहानी नहीं है। यह कहानी भी समय की है। इस कहानी का हीरो भी समय है। समय के सिवा कोई इस लायक़ नहीं होता कि उसे किसी कहानी का हीरो बनाया जाय। आधा गाँव में बेशुमार गालियाँ थीं। मौलाना ‘टोपी शुक्ला’ में एक भी गाली नहीं है। परन्तु शायद यह पूरा उपन्यास एक गंदी गाली है, और मैं यह गाली डंके की चोट बक रहा हूँ। यह उपन्यास अश्लील है…… जीवन की तरह।"
ये उपन्यास विभाजन के बाद कैसे हिंदू और मुसलमानों का मिलकर रहना संभव नहीं है और कितनी समस्या आती है सांप्रदायिकता के कारण इस विषय पर केंद्रित है।
इस उपन्यास के मुख्य किरदार है टोपी शुक्ला, उसका परिवार, उसके बचपन का दोस्त इफ़्फ़न और उसका परिवार और एक लड़की जिससे टोपी प्रेम करता है - सलीमा, जिसका बाद में पाकिस्तान में निकाह हो जाता है।
उपन्यास शुरू करने वाले किसी भी पाठक के लिए इसका नाम टोपी शुक्ला क्यों है? ये प्रश्न सबसे पहले जेहन में उतरना लाज़िम है। क्यों बलभद्र नारायण शु्क्ला को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में टोपी शुक्ला कहा जाता है, इस बारे में लेखक लिखते है:
"यूनिवर्सिटी यूनियन में नंगे सर बोलने की परंपरा नहीं थी। टोपी की ज़िद कि मैं तो टोपी नहीं पहनूँगा। इसलिए होता यह कि यह जैसे ही बोलने खड़े होते सारा यूनियन हाल एक साथ टोपी-टोपी का नारा लगाने लगता। धीरे धीरे टोपी और बलभद्र नारायण का रिश्ता गहरा होने लगा। नतीजा यह हुआ कि बलभद्र को छोड़ दिया गया और इन्हें टोपी शुक्ला कहा जाने लगा।"
इस उपन्यास में एक जगह लेखक लिखते है,"आख़िर इस देश के लोगों की पहचान उनकी जाति या धर्म से होकर ही क्यूँ है? टोपी शुक्ला जैसे लोग जिन्होंने हिंदुस्तानियत का अक़्स लेकर अपने जीवन मूल्य निश्चित किए उनको ये देश कब उनकी वाज़िब पहचान देगा?"
ये कथन जाति, धर्म अथवा अन्य किसी पहचान के आधार पर देश के लोगों की पहचान करने की स्थिति का विरोध करता है और प्रश्न करता है कि क्या ऐसा करना सही होगा?
टोपी के घर में जो विरोधाभास टोपी को दिखता है उसे लेखक टोपी के पिता का जिक्र करते हुए लिखते है:
"डॉ. पंडित भृगु नारायण नीले तेल वाले धुली हुई उर्दू बोलते थे और उर्दू के कट्टर विरोधी थे। इंशा अल्लाह, माशा अल्लाह और सुभान अल्लाह के नीचे बात नहीं करते थे। मुसलमानों से नफ़रत करते थे। पर इसलिए नहीं कि उन्होंने भारत की प्राचीन सभ्यता को नष्ट किया है और पाकिस्तान बना लिया है। बल्कि इसलिए कि उनका मुकाबला डॉ. शेख शरफ़ुद्दीन लाल तेल वाले से था। यह डॉ.शरफ़ुद्दीन उनके कम्पाउण्डर हुआ करते थे। शेख शरफ़ुद्दीन की हरक़त ये रही कि उन्होंने नीले तेल का रंग बदल दिया और डॉक्टर बनकर पब्लिक को दोनों हाथों से लूटने लगे।"
और लेखक किस तरह से व्यंग्य के द्वारा समाज की स्थापित मान्यताओं पर प्रहार करता हैं इसे उनके निम्न कथन से देखा जा सकता है:
"अगर किसी टीचर की बीवी किसी स्टूडेंट से फँसी हुई हो तो उसका पढ़ा लिखा या ज़हीन होना बेकार है। वह रीडर बन ही नहीं सकता।"
या फिर इस कथन से देखिए
: "रंग बदलने से आदमी का क्या क्या हो जाता है। टोपी एक ही है। सफ़ेद हो तो आदमी कांग्रेसी दिखाई देता है, लाल हो तो समाजवादी और केसरी हो तो जनसंघी।"
या फिर और कथनों से देखते है जैसे:
"इश्क का तअल्लुक दिलों से होता है और शादी का तनख़्वाहों से। जैसी तनख्वाह होगी वैसी ही बीवी मिलेगी। "
किस तरह से दहेज़ और दूल्हा निर्धारण करने की प्रक्रिया पर लेखक ने मज़ाक किया ये काबिले तारीफ़ है लेकिन लेखक यही नहीं रुकता, वो आगे लिखते है:
"सेठ साहब की बेटी लाजवंती बड़ी अच्छी लड़की थी। बस एक आँख ज़रा खराब थी। बाएँ पैर को घसीटकर चलती थीं। रंग ज़रा ढँका हुआ था। और मुँह पर माता के निशान थे। परंतु इन बातों से क्या होता है? शरीफ़ लोगों में कहीं बहुओं की सूरत देखी जाती है। सूरत तो होती है रंडी की। बीवी की तो तबियत देखी जाती है।"
और ऐसा नहीं हैं की लेखक सिर्फ व्यंग्य करता है। लेखक के नीचे लिखे कथन से कैसी भावुकता महसूस होती है ये सोचने का प्रश्न है:
"भाई होई की बहिन? एक नौकरानी ने पूछा
साइकिल ना हो सकती का! टोपी ने सवाल किया"
और उपन्यास में आगे बताया गया कि कैसे दोनो बचपन के दोस्त बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में मिलते है, कैसे उनकी दोस्ती और परिपक्व होती है, कैसे सकीना के साथ टोपी के संबंधों की बात उड़ा दी जाती है, कैसे अंत में सकीना का प्रेम ना मिलने से टोपी हताश होता है और अंत में टोपी आत्महत्या कर लेता।
अब अंत में सोचने वाला सवाल है कि हमारे समाज में कितने टोपी हैं और कितने टोपी पहनने वाले है। ये उपन्यास व्यंग्य, दोस्ती और एक उदासी से भरा हुआ है जो अंत तक पाठकों को अपने शब्द जाल में फांसकर रखने में सफल होता है।