वैश्विक महामारी का नारी श्रम-बल व रोजगार पर प्रभाव और उनके कारण
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी प्राइवेट लिमिटेड की रिपोर्ट के मुताबिक लॉक डाउन के दौरान कामकाजी महिलाओं में से केवल 19% महिलाएं ही ऐसी है, जिनका रोजगार अप्रभावित रहा है वहीं पुरुषों के लिए ये आंकड़ा 75% है। इसके अलावा किसी भी संस्थान ने अगर अपने स्टाफ की संख्या में कमी भी की है, तो उनमें महिलाओं को सबसे पहले निकाला गया है।
वैश्विक महामारी ने लगभग प्रत्येक देश को बुरी तरह प्रभावित किया है किन्तु बढ़ती जनसंख्या एवम् आधारभूत सुविधाओं की कमी के चलते अन्य देशों की तुलना में भारत को इसके और भी भयानक परिणाम देखने को मिले हैं।
जिसमें कई मध्यवर्गीय परिवारों का इस महामारी के चलते एक झटके में गरीबी रेखा से निचले स्तर पर चले जाना, लोगों की आय के साधन छीन जाना जैसे प्रभाव हम देख रहे हैं।
वैसे तो कोविड का असर लगभग सभी वर्गों पर पड़ा है लेकिन फिर भी इसका सबसे ज्यादा नुकसान महिला वर्ग को झेलना पड़ा हैं।
कोरोना के पहले रोजगार के लगभग प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं की हिस्सेदारी निरंतर बढ़ रही थी, लेकिन अचानक से आई इस कोरोना महामारी ने भारत में जेंडर एम्प्लॉयमेंट गैप' को पहले की तुलना में कई गुना बढ़ा दिया है और लैंगिक समानता की ओर जा रहे कदमों को चोटिल कर दिया है।
इसका प्रमुख कारण यह है कि वैश्विक स्तर पर रोजगार में गिरावट के आधार पर चार सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्रों में से तीन में महिलाओं की हिस्सेदारी औसतन पुरुषों की तुलना में ज्यादा है। (महिलाओं के पास आवास और खाद्य सेवा में वैश्विक नौकरियों का 54 प्रतिशत है; खुदरा और थोक व्यापार में 43 प्रतिशत नौकरियां; और कला, मनोरंजन और लोक प्रशासन सहित अन्य सेवाओं में 46 प्रतिशत) ये संकट के समय में सबसे ज्यादा प्रभावित क्षेत्रों में से है।
दूसरा कारक महिला उद्यमिता पर COVID-19 का असमान प्रभाव माना जा सकता है, जिसमें विकासशील देशों में महिलाओं के स्वामित्व वाले सूक्ष्म उद्यम शामिल हैं।
इसके अलावा रोजगार क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी की कमी के कारणों में, पारंपरिक सामाजिक मानसिकता (उदाहरण के लिए, वैश्विक विश्व मूल्य सर्वेक्षण के अनुसार, दक्षिण एशिया के कई देशों में आधे से अधिक उत्तरदाताओं ने सहमति व्यक्त कि नौकरियां कम होने पर पुरुषों को महिलाओं की तुलना में नौकरी पर अधिक अधिकार होना चाहिए जैसी पितृसत्तात्मक सोच), सुरक्षा का संशय, वेतन का असमान वितरण जैसे कारण तो पहले से उपस्थित थे ही, अब महामारी इन सबसे बड़ी वजह बन चुकी है।
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी प्राइवेट लिमिटेड की रिपोर्ट के मुताबिक लॉक डाउन के दौरान कामकाजी महिलाओं में से केवल 19% महिलाएं ही ऐसी है, जिनका रोजगार अप्रभावित रहा है वहीं पुरुषों के लिए ये आंकड़ा 75% है।
इनमें से 47% महिलाओं ने सीधी अपनी नौकरी खो दी है, वहीं अन्य महिलाओं ने वेतन या कार्य प्रारूप में बदलाव को झेला है एवं
4% महिलाओं ने स्व रोजगार का, 3% महिलाओं ने दैनिक मजदूरी की ओर रुख किया है।
इसके अलावा किसी भी संस्थान ने अगर अपने स्टाफ की संख्या में कमी भी की है, तो उनमें महिलाओं को सबसे पहले निकाला गया है।
लॉकडाउन के चलते स्कूलों के बंद हो जाने से महिलाओं का घरेलू कामकाज का भार तो बढ़ा ही है साथ ही बच्चों की शिक्षा में आई रुकावट का सारा जिम्मा महिलाओं के मत्थे आ गया।
इसकी वजह महिलाओं पर अवैतनिक देखभाल (unpaid care) का बोझ भी है, जिसकी मांग महामारी के दौरान काफी बढ़ गई है, महिलाएं यहां सबसे आगे हैं; वे दुनिया के कुल अवैतनिक देखभाल के काम का औसतन 75 प्रतिशत हिस्सा करती हैं, जिसमें चाइल्डकैअर, बुजुर्गों की देखभाल, खाना बनाना और सफाई शामिल है, चूंकि COVID-19 ने पारिवारिक जिम्मेदारियों पर महिलाओं द्वारा खर्च किए जाने वाले समय में अनुपातिक रूप से वृद्धि की है - भारत में अनुमानित 30 प्रतिशत। अतः ये आश्चर्य की बात नहीं है कि जिस दर से महिलाएं कार्यबल के क्षेत्र से बाहर हो गई है, वह श्रम - बाजार की गतिशीलता से समझाई गई दर से कहीं अधिक है।
नौकरियों के अलावा इस समय में महिलाओं पर घरेलू हिंसा और उत्पीड़न के मामलों की संख्या भी बढ़ी है।
उपरोक्त कारणों एवम् दशाओं को देखने - समझने के बाद हमें एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते विचार करने की जरूरत है कि 21वी सदी में क्या यही वो समानता की स्थिति है जो हम लाना चाहते थे?
क्या हम इन परिस्थितियों के चले जाने के बाद महिलाओं को उनकी सेवाओं के लिए केवल धन्यवाद कहेंगे या उनकी अपनी इच्छा, सपनों और स्वतंत्र जीवन का महत्व समझ पाएंगे?