नारी सशक्तिकरण एक पहेली
बेटी को बचाने के लिए और बेटी का अधिकार उसे देने के लिए सरकार ने कई तरह के कानून बनाए "बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ "का नारा भी दिया गया पर उसका भी समाज पर कोई खास असर नहीं दिखाईं दिया है| कानूनों के डर से लोगों ने बेटी को मारना तो बंद कर दिया पर घर की हिंसा से वह खुद को आज भी नहीं बचा पाती है।
"महिला" ये शब्द आते ही हमारे दिमाग़ में एक डरी सहमी सी तस्वीर आती है | औरत को लेकर समाज की यही धारणा रही है और समाज महिला को हमेशा से कमजोर मानता रहा है जो हमेशा किसी न किसी पर आश्रित रहती है | लोगो की इसी सोच ने महिला वर्ग को पुरुष वर्ग पर आश्रित होने को मजबूर कर दिया।
महिलाओं ने भी परिस्थितियों से समझौता कर लिया और वैसे ही रहने लगी,अपना पूरा जीवन, घर-परिवार को समर्पित कर दिया,जैसा सभी ने चाहा वो वैसे ही रहने लगी। अपने सपने,अपनी खुशियों को नज़रअंदाज़ करती रही और समाज की हर महिला ने यह मान लिया की औरत का जीवन यही है और औरत ऐसे ही जीने के लिए बनी है |
बढ़ते समय के साथ -साथ समाज भी बदला और विकसित हुआ पर महिला की स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया वो बस घर तक ही सीमित रही | देश तो आज़ाद हुआ पर देश की महिला नहींं। घर से बाहर निकलने की आज़ादी बस पुरुष तक ही सीमित रही है और औरत की आज़ादी बस घर तक ही सिमट कर रह गईं जहां उसे कहीं भी आने-जाने का अनुमति नहीं होती थी। ऐसा लगता है जैसे शादी से पहले मांं-बाप,भाई की अनुमति और शादी के बाद सास ससुर और पति की अनुमति लेकर घर से बाहर निकलने का औरत के लिए कोई ख़ास कानून बनाया गया था जो संविधान में भले वर्णित न हों,पंरतु लोगों के मस्तिष्क में जरूर घर कर चूका था।
शादी के बाद लड़की की जिंदगी बदल जाती है अपनी जिंदगी पर उसका अधिकार ही नहीं रहता अपने पति के अनुसार ही चलना पड़ता है वही जो चाहे वही करना पड़ता है | समाज ने लड़की को पति की कठपुतली बनाकर रख दिया है | पति चाहे जो करें लेकिन पत्नी को इजाजत नहीं कि वह उससे सवाल पूछ सके या अपनी मर्जी से कुछ कर सके |
समाज में महिला को सिर्फ एक बोझ की तरह ही समझा गया है | लड़की अपने परिवार में कोई नहीं चाहता लड़की लोगों को इस क़दर नापसंद है कि उसको पेट में ही मार दिया जाता है या पैदा होने के बाद मार दिया जाता है और यदि वो बच भी गई तो उसको सड़क पर या अनाथ आश्रम में छोड़ दिया जाता है। इन सब से हटकर अगर किसी ने बेटी को घर में जगह दी भी तो घर में लड़के और लड़की में अच्छा खासा भेदभाव देखा जाता है| जनगणना 2011 के ताजा आंकड़े बताते हैं कि देश में छह साल तक की आबादी में एक हजार लड़कों के मुकाबले सिर्फ 914 लड़कियां ही हैं।
बेटी को बचाने के लिए और बेटी का अधिकार उसे देने के लिए सरकार ने कई तरह के कानून बनाए "बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ "का नारा भी दिया गया पर उसका भी समाज पर कोई खास असर नहीं दिखाईं दिया है| कानूनों के डर से लोगों ने बेटी को मारना तो बंद कर दिया पर घर की हिंसा से वह खुद को आज भी नहीं बचा पाती है। घर में ही भाई और बहन के बीच इतना ज्यादा भेदभाव देखने को मिलता है बेटा अगर पढ़ रहा है तो बेटी को घर के कामों में लगा दिया जाता है | उसको हमेशा बोला जाता है कि उसकी पढ़ाई लिखाई का कोई मतलब नहीं है क्योंकि उसको शादी के बाद ससुराल में झाड़ू पोछा,चूल्हा चौका ही करना है और वह इसी काम के लिए बनी है।
बीते दिनों संयुक्त राष्ट्र पॉपुलेशन फंड की ओर से भारत में महिलाओं की स्थिति को लेकर एक रिपोर्ट प्रकाशित की गई,जिसमें महिलाओं के जीवन के संदर्भ में गहरी चिंता व्यक्त की गई है। रिपोर्ट में महिलाओं के खिलाफ होने वाले 19 मानवाधिकारों के उल्लंघन पर प्रकाश डाला गया है जिनमें से तीन सबसे अधिक प्रचलित अपराध है–फीमेल जेनाइटल मूटिलेशन, बेटियों के साथ होनेवाला भेदभाव और भ्रूण हत्या, बेटों को मिलने वाला बढ़ावा और बाल विवाह।
महिलाओं को एक शिक्षा जरूर दी जाती है 'अपने पति और सास-ससुर की सेवा करने की और अब उसका जीवन उन्हीं लोगों का है वह कुछ भी करें लेकिन उनको पलटकर जवाब नहीं देना " शादी के समय मां-बाप की ऐसी बातें ही है जो बेटी की हत्या का कारण बनती है। बेटी को ससुराल में जलाया जाता है या जो दहेज प्रथा के माध्यम से शोषण किया जाता है | दहेज प्रथा इतनी बढ़ गई है कि लड़कियों की जान जा रही है या तो फिर वह शोषण से तंग आकर खुद अपनी जान दे देती है या उसके मां-बाप तथाकथित समाजिक इज्ज़त के लिए अपनी ही जान दे देते है | कहने का तात्पर्य यह है की एक औरत जहां देखो वहां शोषण और अत्याचार की लपटों के घेरे में ही दिखाईं देती है।
महिलाओं को लेकर समाज की सोच लड़कियों के प्रति हिंसा को बढ़ावा दे रही है | समाज में रेप बढ़ते जा रहे है | समाज तो विकसित हुआ लेकिन लड़कियों को लेकर आज भी वही सोच है | लड़कियों के साथ रेप होने पर लड़की की ही गलती निकाली जाती है कभी उसके कपड़ों को दोष दिया जाता है तो कभी उसके बाहर जाने और उसके काम पर उंगली उठाई जाती है| लड़के के पक्ष में बड़े आराम से बस एक बात बोल दी जाती है कि "लड़के तो होते ही ऐसे है लड़कियों को संभल के रहने की जरूरत है" लड़कों के पक्ष में यह बोलना कहाँ तक सही है क्या लड़कियों को अपनी पसंद के कपड़े पहनने की,अपनी मर्जी से कुछ भी करने की इजाजत नहीं है? क्या उनके लिए संविधान की आज़दी और समाजिक आज़दीके मायने अलग हैं?
विकसित होते समाज के साथ-साथ लोगों को भी विकसित होने की जरूरत है। बदलते समाज में अपनी सोच को बदलने की जरूरत है। महिलाओं को कुछ भी करने की इजाजत है और महिलाएं भी पढ़ लिखकर अपने पैरों पर खड़ी हो सकती हैं अपनी मर्जी से अपनी पसंद के काम कर सकती है इस बात को जहन में बैठान की आवश्यक्ता है। लड़कियों को डर कर रहने की या बदलने की जरूरत नहीं है बल्कि समाज को बदलने की जरूरत है,समाज की सोच को बदलने की जरूरत है।
प्रीति शुक्ला।