रंगभेद वर्षो पुरानी कुप्रथा है,सिर्फ क्रीम का नाम बदलने से नहीं जाएगी

महिलाओं और पुरुषो की त्वचा को बहुत कम समय में गोरा करने का दावा करने वाली क्रीम ने अपना नाम बदल दिया पर क्या खरीदने वालो की सोच मे फर्क आया ? क्या लोगो ने अश्वेत रंग को स्वीकारना शुरू कर दिया ? क्या नाम बदलने से लोगो का ह्रदय परिवर्तन हो गया ?

May 13, 2021 - 15:47
January 5, 2022 - 12:54
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रंगभेद वर्षो पुरानी कुप्रथा है,सिर्फ क्रीम का नाम बदलने से नहीं जाएगी
Black lives matters

भारत तथा अन्य देशो में रंग भेद को लेकर कई आंदोलन होते रहे हैं । पिछले वर्ष अमेरिका में जॉर्ज फ्लॉएड की हत्या के बाद इस मुद्दे ने एकबार फिर ज़ोर पकड़ा था । इस हत्या के विरोध में ट्विटर पर एक हैशटैग ट्रेंड करने लगा #ican'tbreath। अमेरिका से इस आंदोलन की लहर भारत तक भी आ गयी । देश के तमाम बॉलीवुड सेलिब्रिटीज ने ट्वीट करके अमेरिका में जो हुआ उसकी निंदा की । ये घटना तो अमेरिका की थी पर क्या भारत में नस्ल भेद,रंग भेद पूरी तरह से समाप्त हो गया है ?

इस पर हम और आप,साथ ही बॉलीवुड के भी तमाम सेलिब्रिटी चुप्पी साधेंगे। पिछले वर्ष हुई इस घटना में लोगो ने फेयर एंड लवली क्रीम को निशाना बनाया परिणाम स्वरुप क्रीम का नाम ग्लो एंड लवली रख दिया गया ।

महिलाओं और पुरुषो की त्वचा को बहुत कम समय में गोरा करने का दावा करने वाली क्रीम ने अपना नाम बदल दिया पर क्या खरीदने वालो की सोच मे फर्क आया ? क्या लोगो ने अश्वेत रंग को स्वीकारना शुरू कर दिया ? क्या नाम बदलने से लोगो का ह्रदय परिवर्तन हो गया ? तो ऐसा कुछ भी नहीं हुआ,आज भी भारत में ऐसे सौंदर्य प्रसाधन यानि ब्यूटी प्रोडक्ट्स बिक रहें है जो त्वचा को गोरा करने का दावा करते हैं , साथ ही ये प्रोडक्ट्स तेज़ी से खरीदे भी जाते हैं । मुद्दा ये नहीं है की प्रोडक्ट्स खरीदे और बेचे क्यों जा रहे मुद्दा तो यह है की ये गोरापन पाने की लालसा बढ़ती जा रही है । 

जब हमारे देश में आज भी रंगभेद जैसी रूढ़िवादी सोच आज भी होगी तो गोरेपन की लालसा में इन प्रोडट्स का बिकना लाज़मी है । हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में सांवले या अश्वेत होने के कारण बहुत से अभिनेताओं और अभिनेत्रिओं ने भेदभाव झेला है । सिर्फ फिल्म जगत ही क्यों , मीडिया क्षेत्र की बात की जाये तो क्या आपने आज तक किसी अश्वेत या सांवली एंकर को न्यूज़ प्रस्तुत करते देखा है ? शायद नहीं क्यूंकि हम अपने आप को कितना भी आगे बढ़ता हुआ बता दें,चाहे हम अपने देश को विकसित हो रहे देशो की सूची में रख दें लेकिन रंगभेद की ये मानसिकता हमारे समाज का पीछा नहीं छोड़ रही है।

आज हम २१वी सदी में हैं जहाँ हर क्षेत्र में तरक्की होती दिख रही पर अख़बार का विवाह के विज्ञापन वाला पन्ना आज भी लड़का /लड़की का गोरा रंग मांग करने वाले विज्ञापनों से भरा होता है । गाँधी और मंडेला ने अपने समय में इस रंग भेद की रूढ़िवादिता को मिटाने के लिए चाहे कितने ही प्रयत्न क्यों न किये हो पर भारत और अमेरिका जैसे कई अन्य देशो में ये भेद-भाव आज भी जारी है ।

आज के समय में युवाओं की ज़िम्मेदारी बनती है की ऐसी निरर्थक रूढ़िवादी मानसिकता का विरोध करके इसे समाज से निकाल फेंकने की कोशिश करें ।

- स्वाती दुबे

स्वाती दुबे मैं जज्बातों को शब्दों में ढालने की एक कोशिश हूं । पढ़ना शौक , लिखना आदत और बोलना पेशा ।