परवेज खान से उस्ताद नुसरत फतेह अली और फिर सिंगिंग बुद्धा बनने तक की कहानी
कहते हैं कि जब इंसान खुश होता है, तो वह गाने के संगीत को समझता है। लेकिन जब वह उदास होता है, तो गाने के लफ्जों को समझता है। नुसरत साहब के मामले मे ये बाते ज़रा कम लागू होती हैं। उन्हें सुनने वाले इंसान का आलम उनके गीत के मुताबिक ही ढल जाता है। यह फनकारी ही उनको बाकी कव्वालों से अलग बनाती है। अपनी मंडली के साथ जब नुसरत-साहब कव्वाली करन बैठते ,तो फिजाएं रौशन हो उठती थी।कव्वाली करते वक्त वे अपने हाथों को लफ्जों के मुताबिक हवा मे यूं लहराते,मानों हवा मे ही चित्र खींच रहे हों।
संगीत की तमाम विधाओं मे से एक बेहद रंगीन विधा कव्वाली है। यह एक तरह की सूफी गायन शैली है। कव्वाली की बात करते ही कानों मे दूर से एक रूहानियत भरी आवाज गूंज जाती है। ये आवाज इतनी अनोखी है कि इसकी धुन से टकराने वाला अपनी अलग ही धुन मे मस्त हो जाता है और जो इस धुन का बादशाह है ,वह भी एक इंसान ही है जो अपनी आवाज़ से झूमने पर मजबूर कर देता है। बात हो रही है उस्ताद नुसरत फतेह अली खान साहब की जिन्हें शहंशा-ए-कव्वाली कहा जाता है। शहंशा मतलब राजाओं के राजा। उनकी कव्वाली सुनने वालों के लिए ये बिल्कुल जानी-पहचानी सी बात होगी। अगर आप ने उनके बारे मे नही सुना, तो उनके गाए गाने जरूर सुने होंगे। जुबीन नौटियाल ने हाल ही मे एक गाना गाया है , जो लोगों को खूब पसन्द आ रहा हैं। उसके बोल है - “आंख उठ्ठी मोहब्बत ने अंगड़ाई ली , दिल का सौदा हुए चांदनी रात में"। ये गाना नुसरत साहब ने आज से लगभग 20 साल पहले ही गा दिया था। इसी तरह 'मेरे रश्क-ए-कमर' , 'क्या से क्या हो गए देखते-देखते' और 'तुम्हे दिल्लगी भूल जानी पड़ेगी' , जैसे कई गानों को नुसरत फतेह अली खान पहले ही अपना संगीत देकर तैयार कर चुके थे। आज उन गानों के रीमेक भर सुनकर ही लोग, उन्हें इतना पसन्द कर रहे।
कहते हैं कि जब इंसान खुश होता है, तो वह गाने के संगीत को समझता है। लेकिन जब वह उदास होता है, तो गाने के लफ्जों को समझता है। नुसरत साहब के मामले मे ये बाते ज़रा कम लागू होती हैं। उन्हें सुनने वाले इंसान का आलम उनके गीत के मुताबिक ही ढल जाता है। यह फनकारी ही उनको बाकी कव्वालों से अलग बनाती है। उनकी फनकारी के दायरे की बात करें ,तो वे गायक के साथ-साथ उम्दा संगीतकार और निर्देशक भी थे।
अपनी मंडली के साथ जब नुसरत साहब कव्वाली करने बैठते ,तो फिजाएं रौशन हो उठती थी। कव्वाली करते वक्त वे अपने हाथों को लफ्जों के मुताबिक हवा मे यूं लहराते, मानों हवा मे ही चित्र खींच रहे हों। उनके सुनने वाले बताते हैं कि उनकी आवाज का जादू उन पर यूं छा जाता था, कि वे उन्हें बार-बार सुनने की हसरत रखते थे। आइए जरा जानें कि परवेज नाम का लड़का कैसे पहले उस्ताद नुसरत फतेह अली खान बना और फिर शहंशा-ए-कव्वाली के नाम से नवाजा़ गया। उऩके सिगिंग बुद्धा कहलाने की वजह भी इसी कहानी का हिस्सा है।
खान साहब का जन्म 13 अक्टूबर 1948 को फैसलाबाद मे हुआ था, जो कि वर्तमान मे पाकिस्तान का एक शहर है। इनके वालिद (पिता) उस्ताद फतेह अली खान एक बड़े कव्वाल थे। बंटवारे से पहले वे जलंधर मे रहते थे। उसके बाद वे पाकिस्तान चले गए। देश-विदेश से लोग उनके शागिर्द (शिष्य) बनकर उनसे संगीत सीखने आते थे। नुसरत साहब के बचपन का नाम परवेज खान रखा गया था। उनकी 3 बड़ी बहनें और एक छोटा भाई था। उनके छोटे भाई फारुख अली खान जो राहत फतेह अली खान के पिता हैं, वे भी नुसरत साहब की मण्डली के एक सितारे रहे हैं। उस समय गायकों को ज्यादा तवज्जों और पैसे ना मिलने की वजह से नुसरत साहब के वालिद ,उनको पढ़ा-लिखा कर डाॅक्टर बनाना चाहते थे। उन्होंने मैट्रिक का इम्तिहान भी पास कर लिया था। उनको रियाज मे ज्यादा बैठने की इजाजत नहीं दी गई थी। लेकिन घर के माहौल का असर कहें या क्या, नुसरत साहब का दिल संगीत पर टिक चुका था। उन्होने अपने वालिद साहब से तबला बजाना पहले ही सीख लिया था। लेकिन जब उन्हें गायन के रियाज मे बैठने की इज़ाजत नहीं मिली ,तो वे छिप-छिप कर उनके वालिद के शागिर्दों को रियाज करते देख, सीखने की कोशिश करते थे। एक बार जब किसी मौके पर नुसरत साहब ने अपने वालिद के मेहमानों के सामनें एक कलाम की पेशकश की तो सबका दिल जीत लिया। अब तक उनके वालिद समझ चुके थे कि परवेज संगीत मे डूब चुके हैं। उन्हें मौशिकी (गायन) मे आगे बढ़ने की इजा़जत मिल गई। उनके वालिद ने उनसे खूब रियाज करवाना शुरू कर दिया। एक साक्षात्कार मे नुसरत साहब बताते हैं कि वे दिन मे 10-10 घण्टों तक रियाज करते थे। सुबह रियाज करने को कमरे मे जाते और लौटते तो रात हो चुकी होती। उनके वालिद कभी-कभी उनके आलस के चलते, उन्हे मिठाईयों का लालच देकर रियाज कराते औऱ जरूरत पड़ने पर उन्हें डांटा भी जाता था।
नुसरत साहब महज 15 साल के थे, जब उनके वालिद उस्ताद फतेह अली खान का इंतकाल हो गया। उनकी बरसी मे आयोजित श्रद्धांजली कार्यक्रम मे नुसरत फतेह अली खान ने पहली बार अपना गाना पेश किया। उस वक्त बड़े-बड़े गीतकार और संगीतकार वहां मौजूद थे। सभी की आखे उन्हें सुनकर नम हो गई। उन सभी ने खान साहब में मौजूद फनकार की पहचान की और उन्हें सराहा। इसके बाद नुसरत साहब ने लगातार अपने ताया (बड़े पापा) उस्ताद मुबारक अली खान के साथ कार्यक्रम करने शुरू किए और अपनी फनकारी तेज की। साथ ही उन्होंने चाचा सलामत अली खान से हारमोनियम बजाना सीखा।
1971 मे नुसरत साहब के ताया ,मुबारक अली खान के इंतकाल के बाद उन्हें कव्वाली टीम की कमान सौंपी गई। शुरू मे तो लोगों ने कहा कि ये भला कैसे अपने वालिद और ताया की तरह कव्वाली कर पाएगा। लेकिन जब उन्होंने कार्यक्रम करना शुरू किया तो लोगों के ताने, तारीफ मे बदल गए। उनका नाम गुलाम घौस समदानी ने नुसरत रखा जिसका मतलब होता है जीत। नुसरत साहब की ' हक अली अली मौला अली अली' नामक कव्वाली ने उन्हें दुनिया मे मशहूर किया। उसके बाद तो जो हुआ, वो इतिहास है। संगीत के इतिहास मे वे अमर हो गए।
1664 मे उन्होंने पहली बार रेडियो पाकिस्तान, लाहौर मे जब एक फारसी कलाम पढ़ा, तो वहां बड़े-बड़े कलाकार मौजूद थे। जश्न-ए-बहारा नाम के उस आयोजन बड़े गुलाम अली, छोटे गुलीम अली और शौकत हुसैन जैसे फनकार भी शामिल थे। 18 साल के खान साहब को लोगो ने तभी से उस्ताद कहना शुरू कर दिया था।
नुसरत साहब घण्टों तक पूरे जोश के साथ गाने के लिए मशहूर रहे हैं। अपनी इन्हीं खूबीयों के साथ उन्होंने अपने 600 साल पुरीने संगीत घराने 'कव्वाल बच्चोन’ की पहचान को मुकर्रर रखा। एक साक्षात्कार मे उन्होंने बताया कि उनके पूर्वज अफगानिस्तान के रहने वाले थे। उन्होंने कहना था कि उन्हें बड़ी खुशी होती है कि वे अपने पूर्वजों के नक्श-ए-कदम पर चल रहे हैं। 1979 मे खान साहब की शादी नहीद नुसरत से हुई । नुसरत साहब की एक बेटी हैं जिनका नाम निदा फतेह अली खान है। वे इस समय कनाडा मे रहती हैं। वर्तमान मे उनके भतीजे राहत फतेह अली खान और रिजवान- मुहज्जम भी अपने संगीत घराने को आगे ले जा रहे हैं।
2016 मे नुसरत फतेह अली खान को 'एल ए वीकली' द्वारा समय के चौथे महान संगीतकार का खिताब दिया गया था। अपने गायक जीवन के दौरान नुसरत साहब ने हिन्दुस्तान समेत कई देशों में अपने फन से लोगों को झुमाया है। इसमे यूरोप ,जापान और अमेरिका समेत कई बड़े देश हैंं, जहां वो खूब पसन्द किए गए। जापान मे लोग उनके संगीत पर इस कदर फिदा थे कि वे बोल नहीं समझ पाते, फिर भी खान साहब को बिना रुके सुनते रहते थे। वहां उनके संगीत की दिवानगी की गवाही इस बात के हवाले से भी मिलती है कि वहां लोग उन्हे सिंगिंग बुद्धा के नाम से पुकारते हैं।
अपनी मौशिकी मे नुसरत साहब कव्वाली को सबसे ज्यादा प्रयोग मे लाया। कव्वाली के वे साथ-साथ गजल, सूफी-साज, शास्त्रीय संगीत भी बखूबी पेश करते थे। इसके अलावा पाकिस्तानी पाॅप , क्लासिकी और बाॅलीवुड मे भी काम किया था। वे उर्दू, फारसी , अरबी , पंजाबी और हिन्दी भाषा मे कार्यक्रम करते थे। एक इंटरव्यू मे उन्होंने खुद बताया कि उन्हें अंग्रेजी बोलने मे दिक्कत रहती है। उनकी मण्डली मे केवल एक ही व्यक्ति था, जो अंग्रेजी जानता था। वही उनके प्रबन्धन का काम देखते थे।
पाकिस्तान की एक मीडिया संस्थान को इंटरव्यू देते वक्त नुसरत साहब ने बताया कि वे पहले ही अपनी मण्डली को उनके बैठने और बोलने की जगह बता देते थे। उनकी मण्डली मे एक तेज-तर्रार तबलाकार , दिलदार हुसैन भी शामिल थे। कुछ लोग कोरस पर औऱ दो से तीन लोग हारमोनियम पर होते थे। जब पूरी मण्डली गाना शुरू करती थी, तो सुनने वालों की सीटियां उनके अनूठेपन की गवाही देती थी। लोग झूमते हुए उनके पास आते , नाचते और खुशी से उन पर नोटों की गड्डिया लुटाते थे। उसी इंटरव्यू मे उन्होंने बताया कि सन् 1964-65 के आस-पास एक बार उन्हे सपना आया कि वे किसी गजब सी दरगाह पर कव्वाली गा रहे है। जब उन्होंने अपने सपने मे आई उस दरगाह के बारे मे अपने चाचा को बताया तो उसके दृश्यों को अजमेर शरीफ की दरगाह से मिलता पाया। इसके बाद उनकी इच्छा हुई तो उन्होंने अजमेर शरीफ की दरगाह पर भी कव्वाली की। 6 साल की उम्र मे ही उन्होंने राहत फतेह अली खान को गाना और हारमोनियम बजाना सिखा दिया था।
हिन्दुस्तान मे भी नुसरत साहब का जलवा रहा है। सबसे पहले हिन्दुस्तान मे उन्हें राज कपूर ने बुलाया था। उन्हे 1980 में ऋषि कपूर की शादी मे कार्यक्रम करने लिए निमंत्रित किया गया था। बाॅलीवुड के कई संगीतकारों और गायकों के साथ उन्होंने काम भी किया है। उन्होंने ए आर रहमान , लता मंगेशकर , आशा भोसले और जावेद अख्तर के आलावा और कई कलाकारों के साथ काम किया हुआ है।वे लता मंगेशकर के गानों के फैन भी थे। फिल्म कच्चे धागे मे उन्होंने लता मंगेशकर के साथ काम भी किया। वे अमिताभ बच्चन, राज कपूर और दिलीप कुमार की फिल्मे देखना पसंद करते थे।
शायरी औऱ गजलों के लिए नुसरत साहब मिर्जा गालिब और बुल्लेशाह को भी पढ़ते थे। इसके अलावा खान साहब हाॅकी और क्रिकेट देखने का शौक था। उन्हें अंग्रेजी एडवेंचर फिल्मे देखना भी अच्छा लगता था। उन्होंने अग्रेजी फिल्म 'द लास्ट टेम्पटेशन आफॅ क्राइस्ट' मे पीटर गैब्रियल के साथ काम किया और फिल्म मे अपना अलाप भी दिया था।
देश-विदेश मे नुसरत साहब के चाहने वालों की कमी नहीं थी। आज भी जो उनका संगीत एक दो दफा सुन लेता है, तो उनसे जुड़ा रह जाता है। 1987 मे उनको पाकिस्तान का राष्ट्रपति सम्मान भी मिल चुका है। 125 से भी अधिक कव्वाली गाने के लिए 2001 मे उऩका नाम 'गीनीज बुक आॅफ वर्ल्ड रिकार्ड 'मे भी शामिल किया जा चुका है। 1995 मे उन्हें संगीत के लिए 'यूनेस्को सम्मान' भी दिया गया। 25 साल के अपने संगीत जीवन के दौरान उन्हे कई बार सम्मानित किया गया।
नुसरत फतेह अली खान के इंतकाल के पीछे उनके वजन और उससे हुई बिमारियों का जिक्र मिलता है। उनका वजन 135 किलो हो गया था। उन्हें किडनी और लीवर मे खराबी आ गई थी। उन्हें किडनी ट्रांसप्लांट के लिए लाॅस एंजिलिस ले जाया जा रहा था। रास्ते में उनकी तबीयत बिगड़ गई और उनके प्लेन को लंदन मे ही लैण्ड कराया गया। उन्हे क्राउमवेल हाॅस्पिटल मे भर्ती कराया गया। बताया जाता है कि मरने से पहले उन्होंने स्ट्रेचर पर एक कन्सर्ट भी किया था। 16 अगस्त 1997 को महज 48 साल के इस महान फनकार ने आखिरी सांसे ली। भले ही आखिरी सांस लिए, उन्हे आज 24 साल हो गए हों, लेकिन खान साहब अपने संगीत के रूप मे लोगों को जुबां पर लगातार सांसे ले रहे हैं। फिल्म धड़कन का ' दूल्हे का सेहरा सुहाना लगता है’ ,बाॅलीवुड मे उनका आखिरी गाना था जो आज भी लोग अपने शादियों की कैसेट्स मे लगवाना नहीं भूलते।
उस्ताद नुसरत फतेह अली खान की शख्सियत को उनके संगीत से समझना चाहते हैं, तो यूट्यूब पर उनके गाए ये गाने जरूर सुनिएगा ---
- सादगी तो हमारी जरा देखिए , ऐतबार आपके वायदे पर कर लिया ।
- मेरा सजन नही आया , वादा करके सजन …
- कहना गलत गलत तो छिपाना सही सही।
- हुश्न वालों से अल्लाह बचाए, मजामालों से अल्लाह बचाए..
- काली-काली जुल्फों के फंदे ना डालो, हमे ज़िन्दा रहने दो ऐ हुश्न वालों।
- आंख उठ्ठी मुहब्बत ने अंगड़ाई ली, दिल का सौदा हुआ चांदनी रात में…
- मेरे रसक-ए-कमर..
- सोचता हूं के वो कितने मासूम थे, क्या से क्या हो गए देखते देखते ।
- छाप तिलक सब छिनी रे..
- किन्ना सोना तेनु रब ने बनाया..
- अखियां उंडेक दिया दिल बाजा मारता।
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- ऐसा बनना संवरना मुबारक तुम्हे, कम से कम इतना कहना हमारा सुनो।
- सांसो की माला मे सिमरू मैं..
- तुम ही तो गोरखधंधा हो ।