Lok Sabha Elections 2024: क्या होगा भारत में आगे का "राजनीतिक नैरेटिव" ?

Indian general election 2024: लगभग 30 सालों बाद किसी एक पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला। 2014 में विपक्षी दलों ने एक "राजनीतिक नैरेटिव" गढ़ा, "नरेंद्र मोदी गुजरात दंगों का हत्यारा है, ग़र ये व्यक्ति सत्ता में आया तो एक बड़े स्तर पर मुस्लिमों का नरसंहार होगा।"

July 21, 2023 - 16:47
July 21, 2023 - 16:48
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Lok Sabha Elections 2024: क्या होगा भारत में आगे का "राजनीतिक नैरेटिव" ?
Lok Sabha Elections 2024
Lok Sabha Elections 2024: राजनीति में ताकत दो प्रकार से मापी जाती है। पहला, वोट के अंकगणित के ज़रिए अर्थात वोटों की ताकत और दूसरा, जन की भावना को अभिव्यक्त करने की ताकत। हालांकि यह जरूरी ही नहीं कि जन की भावना वोटों में बदल जाए लेकिन राजनीति में अब तीसरी ताकत का बोलबाला है और वह है "राजनीतिक नैरेटिव"। 

लगभग 1984 से लेकर 2014 तक हमनें इस मुल्क में एक खण्डित जनादेश को ही देखा था, लगभग 30 सालों बाद किसी एक पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला। 2014 में विपक्षी दलों ने एक "राजनीतिक नैरेटिव" गढ़ा, "नरेंद्र मोदी गुजरात दंगों का हत्यारा है, ग़र ये व्यक्ति सत्ता में आया तो एक बड़े स्तर पर मुस्लिमों का नरसंहार होगा।"

इसके काउंटर में नरेंद्र मोदी जी ने अपना "राजनीतिक नैरेटिव" गढ़ा, "सबका साथ, सबका विकास" और "इंडिया फर्स्ट"।

याद रहे साहेबान "इंडिया फर्स्ट" में मोदी ने "संरक्षणवाद" (protectionism) की एक झलक दी थी, मेक इन इंडिया जिसका परिणाम है और जो एक सतत प्रक्रिया है।

  •  ऐसा नहीं है कि राजनीतिक नैरेटिव इससे पहले "भारतीय राजनीति" में नहीं था लेकिन उससे मूल अर्थो में "राजनीतिक नैरेटिव" नहीं कहा जा सकता। गौर करे साहेबान कि साल 1967 में पहली बार कांग्रेस को विपक्ष की ओर से झटका मिला था लेकिन फिर भी कांग्रेस लगातार सत्ता में बनी रही। काँग्रेस को ग़र कोई चुनौती दे सकता था तो वे दो ही थे। पहली, भाजपा और दूसरा वामपंथ। वामपंथ ने अपने ढकोसलों से अपनी हैसियत भारतीय राजनीति में गिरा दी थी(है)। ऐसे स्थिती में भाजपा ही कांग्रेस के लिए एक चुनौती साबित हो सकती थी और चुनौती साबित हुई।

  • राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने राष्ट्र निर्माण के लिए एक सिंद्धात, एक मूल्य और एक मर्यादा दी। संघ के इसी सिद्धांत, मूल्य और मर्यादा को एक दिशा देने का काम पहले जनसंघ और फिर भाजपा ने किया। नेहरू के ऊपर यूरोप का प्रभाव था । यूरोप की सोच को वे सदैव से भारतीय संस्कृति पर थोपते रहे। "आचार्य कृपलानी का उनसे 'अल्पसंख्यक' प्रश्न पर पहला बड़ा मतभेद हुआ और कांग्रेस अध्यक्ष पट्टाभि सीतारमैया बने। उन्होंने जगद्गुरु शंकराचार्य के साथ एक ही मंच में भाषण किया। इस पर नेहरू नाराज़ हुए। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने मार्च, 1949 में गौ कल्याण संघ सभा की अध्यक्षता की थी, यह बात भी नेहरु को नागवार गुजरी।"( राकेश सिन्हा, "राजनीति और धर्मनिरपेक्षता", पृष्ठ संख्या-50-51)

नेहरू भारत में एक तरफ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को कुचलने में लगे थे तो दूसरी तरफ पाकिस्तानी लेखकों ने उन्हें 
'हिन्दुओ का सबसे चतुर प्रवक्ता घोषित किया'। नेहरू सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को कुचलते रहे और जीतते भी रहे, क्यों? क्योंकि नेहरू की सत्ता को चुनौती सदैव उन दलों से मिल रही थी जो स्वयं में ही विभाजित थे। एक तरफ नेहरू की सत्ता थी जो केंद्रीकृत थी तो दूसरी तरफ नेहरू का विरोध जो खुद में ही विकेन्द्रीकृत था।

  • भाजपा उस दल के रूप में उभरी जिसने इस सत्ता को केंद्रीकृत होकर चुनौती दी और इस केंद्रीकृत चुनौती के मूल में था हिंदुत्व और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, जिसे नेहरू ने हमेशा से कुचलने की कोशिश की। आज इस केंद्रीकृत चुनौती का केंद्र गुजरात है और इसकी  दिशा का ज़िम्मा गुजरात के बेटे पर है। जीत और हार हिंदुत्व तथा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के लिए मायने नही रखती, हिंदुत्व और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद इन सबसे ऊपर है। लेकिन, लेकिन याद रखिए हर चुनाव से पहले एक बवाल होता है।
  1. 2019 में चुनाव था, उससे पहले SC/ST केस का बवाल कटा था, पूरा भारत बंद किया गया।  मोदी को कोर्ट के जजमेंट को बदलना पड़ा। पुलवामा अटैक भी हुआ।
  2. 2020 में दिल्ली में चुनाव थे, उससे पहले यहां दंगा भड़का, जिसमें सबसे ज्यादा चपेट में हमारा इलाका था।
  3. पंजाब में चुनाव था,वह खालिस्तान का मुद्दा उठ रहा था।
  4. उत्तर प्रदेश में चुनाव था, हाथरस हुआ था। 2024 में चुनाव है और मणिपुर में हिंसा शुरू हो गईं है।

हर चुनाव से पहले यह क्यों होता है? इस पर विचार करना चाहिए।

2024 का "राजनीतिक नैरेटिव" तय हो चुका है। देश के अन्य राज्यों को भी विपक्ष द्वारा ऐसे ही सुलगाया जाएगा। 

इस लेख के कुछ तथ्य राकेश सिन्हा की पुस्तक "राजनीति और धर्मनिरपेक्षता" से लिये गए हैं। 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि द लोकदूत ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावों या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]