जतीन्द्रनाथ द अनसंग वॉरियर: जिसने देश के लिए भूखे रहकर दे दी थी जान
आजादी के संघर्ष में यूँ तो करोड़ो शहादते दी गई , उनमें से कितनी ही बलिदानियां अनकही दास्ताएँ छोड़ गई। ऐसी ही एक अमर कहानी है 'जतिन दास 'की जिन्होने लाहौर सेन्ट्रल जेल में 63 दिन का अमरण अनशन कर, अंग्रेजो के हौसलो को पस्त किया। इसी शूरवीर की याद में हर वर्ष 13 सितंबर को बलिदानी दिवस मनाया जाता है।
" शहीदो की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरने वालो का यहीं बाकी निशां होगा।"
एक कविता की यह उक्त पंक्तियां ऐसे ही करोड़ो वीरो को समर्पित है जिन्होने खुद से भी पहले वतन को रखा , ऐसा ही एक नाम है जतीन्द्रनाथ का जिनके साथ भले ही इतिहास और इतिहासकारों ने न्याय न किया हो,पर उनकी शूरवीरता और देश भक्ति के लिए भारत माँ और भारतवासी सदैव उनके ऋणी रहेंगे।
एक नजर इतिहास की ओर:
13 सितंबर 1929 को भारत के लिए वो सबसे काला दिन था , जब हमने जतिन दा को खो दिया। और भारत माँ ने अपने सच्चे सपूत को। लाहौर का वो सेन्ट्रल जेल कैदियों से हमेशा गुलजार रहा करता था, पर उस दिन अलग ही गमगीनता का माहौल था। जतिंद्रनाथ महज 25 साल के थे, और 63 दिन से भूखे रहकर अंग्रेजो के खिलाफ युद्ध कर रहे थे, अनशन जतिंद्रनाथ कर रहे थे, और उनके हौसलो को देखकर टूट अंग्रेज रहे थे। उनकी मौत की खबर सुनकर उनकी अंतिम यात्रा में करीब 5 लाख लोग जुटे थे। शहर का वो आलम देख अंग्रेजी बाबूओं को पसीना आने लगा। इतने बड़े जुलूसों को रोका कैसा जाए। यह प्रश्न उनके सामने आकर खड़ा हो गया।
दास की वो दास्तां जिससे बेखबर है आज की युवा पीढ़ी:
दास का जन्म 24 अक्टूबर 1904 में भवानीपुर कलकत्ता मे हुआ। बचपन से ही जतिन दा अपने इरादों के पक्के थे, उन्हें चुनौतियाँ बहुत पंसद थी, एक बार जो कोई कह दे कि जतिन ये तुमसे नही होगा। जब तक वो काम करके न दिखा देते चैन से नही बैठते थे । इनके पिता का नाम बंकिमबिहारी दास और मां का नाम सुहासिनी देवी था। माँ का साया मात्र 9 बरस में ही छूट गया तब पिता ने ही मां की जिम्मेदारियों का निर्वाह किया। वे मैंट्रिक की परीक्षा देने के बाद से ही गांधी जी के नेतृत्व में चल रहे असहयोग आंदोलन से जुड़ गए। अपने क्रांतिकारी रवैये के कारण मात्र 16 साल में ही जेल चले गए। पर बापू के आंदोलन वापिस लेते ही इन्हें चेतावनी के साथ रिहाई दे दी गई थी।
जतिन ने आगे पढ़ने का मन बनाया और वहां इनकी मुलाकात एक बड़े क्रान्तिकारी शचीन्द्रनाथ सान्यांल से हुई। सान्यांल के विचारों ने जतिन दा को बहुत प्रभावित किया । बाद में सान्यांल ने "हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन रखा था। जतिन दा ने इसमें बहुत अहम भूमिका का निर्वाह किया। इनके साहसी और जिद्दी रवैये ने इन्हें एक बड़ा मुकाम दिलवाया, रिपब्लिकन एसोसिएशन के लिए काम करते हुए, जतिन ने बम बनाना सीख लिया था।
इसी वजह से इन्हें काकोरी कांड में मुख्य आरोपी मानकर जेल में डाला गया, जब कैदियों को दी जानी वाली यातनाओं से जतिन दा रुबरू हुए तो वह बहुत निराश हुए। इस व्यवस्था में परिवर्तन के लिए उन्होने और उनके साथियों ने 20 दिन का अनशन किया, इनके साहस के आगे अंग्रेजो ने घुटने टेके और इन्हें अपना माफीनामा भी सौंपा।
जब भगतसिंह से मिला बम बनाने का अनुबंध:
रिपब्लिकन एसोसिएशन में काम करते हुए जतिन दा भगतसिंह के करीबी हो गए, भगत सिंह ने उन्हें बम बनाने के लिए आगरा बुलाया। 1929 में भगतसिंह द्वारा असेंब्ली पर फेके गए बमों का निर्माण जतिन दा ने ही किया था। लाहौर कांड का संदिग्ध पाते हुए उन्हे जेल में डाला गया। उन्होने वहाँ भारतीय कैदियों के साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की।
मानवता के लिए किया 63 दिन का अनशन:
13 जुलाई 1929 को कैदियों के हक के लिए उन्होने अनशन शुरु किया, इस बीच अंग्रेजी हुकूमत द्वारा उन्हें असहनीय कष्ट दिए गए पर जतिन दा न टूटे, न रुके न झुके। अंग्रेजी हुकूमतों को जब उनके स्वास्थ्य पर आने वाले आगामी खतरे का एहसास हुआ तो उन्होने उनके पानी में ताकत की गोलियां डालनी शुरु की । इस बात की भनक होते ही उन्होने पानी पीना भी छोड़ दिया।
अंग्रेजो का आंतक इतना बढ़ गया कि उन्होने उनकी नाक में नली डाल दूध डालना शुरु किया ,दूध फेफडो में जा जमा हो गया। उन्हें सांस आना बंद हो गई।
13 सितंबर 1929 को जतिन दा ने आखिरी सांस ली। उनकी मौत पर उमड़े हुजूम से अंग्रेजी सत्ता डर गई और जतिन दा की शहादत के बाद उनकी सारी शर्तें मान ली गई।
देश ने उस दिन एक ऐसा देश भक्त खोया, जो स्वाधीनता इतिहास में अमर रहेगा। भले ही औपचारिक रुप में उस दिन लिखा गया हो कि जतिन दा चले गए। पर जतिन आज भी हमारे विचारो, दृढ़ता और साहस में जिंदा हैं। उनकी शहादत मिशाल है, दा आदर्श हैं हम युवाओं के लिए यह सीखने के लिए कि देश से पहले कुछ नहीं। हर भारत वासी उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें शत् शत् नमन करता है।