'ओटीटी प्लेटफॉर्म,सोशल मीडिया बनाम भारतीय समाज'

डिजिटल होते समाज को आज एक ऐसी विकराल समस्या ने जकड़ लिया है जिसमें हम भारतीय अपनी मूल प्रकृति के ही नहीं रहे हैं। हालाँकि,यह समस्या भारतीयों तक ही नहीं रह गई है।

March 13, 2021 - 18:30
January 2, 2022 - 06:26
 0
'ओटीटी प्लेटफॉर्म,सोशल मीडिया बनाम भारतीय समाज'
Ott plateform

सिनेमा आज टीवी,थियेटरों से निकलकर मोबाइलों में प्रवेश कर चुका है। क्या कारण है,कि समाज को आइना दिखाने वाला भारतीय सिनेमा आज खुद आईने के समक्ष खड़े होने में असहज दिखाई दे रहा है? सिनेमा के संसार में ओटीटी प्लेटफार्म को मिली स्वतंत्रता का उपयोग करके जिस प्रकार से वेब सीरीजों को शक्ल दी जा रही है वह बड़ी समस्या का रूप लेता जा रहा है। भारत सरकार द्वारा ओटीटी प्लेटफॉर्म पर लगाए जा रहें प्रतिबंध इस आवारापन में थोड़ी सख्ती और अनुशासन जरूर लाएगें।

डिजिटल होते समाज को आज एक ऐसी विकराल समस्या ने जकड़ लिया है जिसमें हम भारतीय अपनी मूल प्रकृति के ही नहीं रहे हैं। हालाँकि,यह समस्या भारतीयों तक ही नहीं रह गई है। किंतु,जहाँ कथाओं और गीतों की शिक्षाओं ने हमारे महापुरुषों की मनःस्थिति को उस स्तर का बनाया की उनका अनुसरण आज सारा विश्व कर रहा है। जहाँ माताएँ अपने पुत्र को गर्भ में धारण करके चक्रव्यूह में प्रवेश करने की शिक्षा कथा को सुनाते हुए देती हों। जिस देश में विष्णु शर्मा जैसे विद्वानों ने 'पंचतंत्र' कथाओं के माध्यम से राजा अमरशक्ति के पुत्रों को विद्वान बना दिया। जहाँ माता जीजाबाई पुत्र को गोद में कथाओं को सुनाते हुए शिवाजी बना देती हों।उस देश के भविष्य की पीढ़ियां यदि कथाओं के रस और संगीतों के राग से दूर हो जाएंगी तो उसका अस्तित्व क्या रह जाएगा? इसीलिए हमें इस समस्या पर अब सिर्फ बात नहीं करनी होगी। सरकारें सिर्फ नियम,कानून,दायरे निर्धारित कर सकती हैं। हमारी प्रभुत्वशाली संस्कृति और संस्कारों को बचाए रखने का कार्य हमें ही करना है।

आज ओटीटी प्लेटफॉर्म एक ऐसा स्वच्छंद प्लेटफार्म बन गया है,जहाँ पर वेब सिरीजों के माध्यम से समाज की मर्यादित सीमाओं को तार-२ कर दिया जाता है । इस स्वच्छंदता ने वेब सीरीजों की आड़ लेकर फेक नरेटिव गढ़ने में एक बड़ी भूमिका निभाई है। वेब सिरीजें कलात्मक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अश्लीलता,कामुकता,कट्टेबाजी को आधुनिकता के तौर पर दिखाने की होड़ में संलिप्त हैं। पारिवारिक रिश्तों को तार-२ करती हुई वेबसिरीजों की आज लाइने लगी हुई है।जहाँ संगीत,कला के प्रदर्शन के नाम पर नंगई परोसी जा रही है जिसकी कल्पना भारतीय समाज की दृष्टि से कभी नहीं कि जा सकती थी। फेमिनिज्म के नाम पर सेक्स,शराब और गालियों को महिला सशक्तिकरण का नाम दिया जा रहा है। ओटीटी प्लेटफॉर्म,वेबसिरीज नामक वायरस को समाज की सबसे छोटी इकाई में फैला देने का काम करने में लगा हुआ है। इस वायरस का शिकार हमारी आने वाली पीढ़ी को होना है। हाल ही में हमनें ब्वायज लॉकर रूम जैसी घटनाएं देखीं हैं। आने वाला दौर और भयावय होने वाला है। जहाँ हमें अपने बच्चों को ऑनलाइन पढ़ाई के प्रति एकाग्र करना है और वहीं उन्हें बेवजह ऑनलाइन रहने से बचाना भी है।

इन वेब सीरीजों से समाज क्या सीख ले रहा है इस पर विस्तृत चर्चा होनी बहुत जरूरी है। वेब सीरीजों में यौनिक प्रसंगो,सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने के प्रयास,घरेलू हिंसा को बढ़ावा देने जैसी प्रवृत्तियों को आमतौर पर रेखांकित किया गया है । साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देते भगवा वस्त्रधारी लोग,भगवा वस्त्र में लोगों द्वारा की गई एक हत्या,क्या किसी एक धर्म विशेष को सांप्रदायिक बताने का काम नहीं कर रही है? 'सेक्रेड गेम्स' में माँ की हत्या करती हुई संताने या फिर एक वेब सीरीज में अपनी माँ के लिए सेक्स का जुगाड़ करता हुआ सिनेमा किस समाज का प्रतिबिंब है? साथ ही आजकल कट्टेबाजी को रोमांटिक रंग देने पर भी काम जोरों पर है। उत्तर भारत,मध्यभारत की पृष्ठभूमि पर फ़िल्म बनाने वाले निर्देशकों ने क्षेत्रीय बोलियों की अवहेलना जिस प्रकार की है,वह सिनेमा के संवाद-लेखन के स्तर को गर्त में ले जा रहें हैं। निर्माताओं और निर्देशकों ने उत्तर भारत की सभी बोलियों को भोजपुरी और बिहार की भाषाओं तक सीमित कर दिया है। अवधी-बुंदेली-बघेली के पात्रों से भोजपुरी और बुंदेली बुलवाई जा रही है। फ़िल्म निर्देशकों के लिए स्थानीय और भाषायी तटस्थता अब कोई मायने नहीं रखती है।कभी इस पर भी बहस हो ताकि यह समझा जा सके की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम का क्या परोसा जा रहा है।वेब सीरीजों ने स्थानीय बोलियों के स्थायित्व पर ही प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया है। सिनेमा में ऐसी त्रुटियों को अनदेखा किया जा रहा है और आश्चर्य तब होता है जब तथाकथित बौद्धिक वर्ग चुप रहता है। यह वर्ग आज बौद्धिक अहंकार से मस्त हो चुका है। बौद्धिक अहंकार में मस्त डायरेक्टरो को संरक्षण देने का काम कर रहे मीडिया मुगलों का भी एक विशेष तबका है जो इन वेबसिरिजों को कालजयी रचना घोषित करने में लगा हुआ होता है।

जब समाज को सबसे ज्यादा आवश्यकता सिनेमा के सहयोग की है। जहाँ समाज की छोटी इकाई  मानवीय मूल्य,नैतिकता,संस्कारों की शिक्षा से कोसों दूर जा रही है। तब सिनेमा एक ऐसा सहयोगी साबित हो सकता है जो कि हमारी पीढ़ी को एक नई दिशा प्रदान कर सकता है। 
ऐसा बिल्कुल नहीं है,कि हमारे पास अच्छे फ़िल्म निर्देशक नहीं है। यहाँ रचनात्मकता की कमी कभी नहीं रही। जरूरत है तो जमीनी स्तर से जुड़े कलाकारों को ऐसे मंचो तक स्थान दिलाने की । ताकि पाताललोक जैसी सीरीज देखकर कोई यह न कह दे की चित्रकूट बुंदेलखंड में है।

आज हास्य विनोद के नाम पर शास्त्रों और देवी-देवताओ पर बोल रहे स्टैंड अप कॉमेडियनों को हम सुन रहें हैं।
फेमिनिज्म के नाम पर अश्लीलता हम देख रहें हैं।
देशीपन और दबंगई के नाम पर कट्टेबाजी,गाली-गलौज हम देख रहें हैं। हम खुद ही अपनी जड़ो को ऐसे दलदल में जमाते जा रहे हैं जहां हमारे सामने एक स्वप्निल संसार है।इस संसार में मध्यम वर्गीय लोग कहाँ है,यह यक्ष प्रश्न है।वास्तविकता के नाम पर यहाँ गालियाँ,सेक्स और अश्लीलता है। ऐसे समय में हमें खुद ही अपनी गरिमा का ख्याल रखना होगा। यदि ऐसा ही चलता रहा तो हम सिर्फ विदेशी प्लेटफार्मों को कब तक दोषी ठहराते रहेंगे।
 
एक और समस्या सभी के समक्ष आज उपस्थित हुई है। हर हाथ में स्मार्टफोन रखने वाली पीढ़ी आज झूठी लोकप्रियता के लिए कई प्रकार के उपक्रम अपनाने में लगी हुई है। कला,संस्कार प्राप्त करने की आयु में यदि हमारे बच्चे कुछ (मौज,स्नैक)एप के जरिए झूठी और सस्ती लोकप्रियता का शिकार होते जा रहें हैं। टिक-टॉक पर बैन करने के कदम ने इस पर कुछ हद तक रोक लगाई है।
डिजिटली कृत होती शिक्षा और बारह इंच की स्क्रीन में किताबों को पढ़ने वाली पीढ़ी संस्कारों को  भविष्य में कितना विकसित कर पाती है,यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण होने वाला है। जिस उम्र में बच्चों के मस्तिष्क को हरिश्चंद्र की सत्यवादिता और श्रवण की मातृ-पितृ भक्ति जैसे प्रसंगों का अनुकरण करने के विषय में विचार करना चाहिए उस समय उनका मस्तिष्क सोशल मीडिया पर पोस्ट की हुई बीस सेकेंड की वीडियो के लाइक्स गिनने में लगा हुआ है । जिस उम्र में बच्चे का समय लोककथाओं,गीतों,प्रार्थनाओं को कंठस्थ करने में लगना चाहिए, वह 'वन बोतल डाउन' को याद कर रहा होता है। जिस उम्र में बच्चों को जीवन में काम आने वाले पाठों का मर्म पढ़ाकर उन्हें भविष्य के लिए तैयार करना होता है।उस समय हमारी यह पीढ़ी आभासी दुनिया का सितारा बनने की होड़ में लगी हुई है। इस दुनिया ने बच्चों के मस्तिष्क पर इतनी गहरी पैठ बना ली है की उसके प्रभाव आज लिपस्टिक लगाए किशोरों पर देखा जा सकते हैं। बच्चों के आदर्श,मूल्य,संस्कार यहाँ तक कि सामान्य व्यवहार का आचरण भी इन्हीं एप के नायक-नायिकाओं के अनुसार तय हो रहें हैं। कल्पना कीजिए ,यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण होगा की जब बच्चे किसी टिक-टॉक,इंस्टाग्राम स्टार को अपना आदर्श बनाएंगे। उस्ताद अलाउद्दीन खां,जाकिर हुसैन,तानसेन को आदर्श मानने वाली देश की पीढ़ी किसी फैजल सिद्दीकी को अपना आदर्श बनाएगी। जो एक लड़की को प्रपोजल ठुकरा देने के दंडस्वरूप एसिड डाल देने के लिए वीडियो बना देता है। अब विचार कीजिए कि इनका मनोवैज्ञानिक असर क्या हमारी पीढ़ी को नहीं होने वाला है?

सोशल मीडिया पर ऐसे वीडियो बनाकर पोस्ट करने में 20 सेकंड का वक्त लगता है वहीं किसी एक गीत को कंठस्थ करने में कई दिनों का अभ्यास लगता है। गीतों,कथाओं को सीखने में एक उम्र निकल जाती है और इनका अभ्यास मस्तिष्क को संवेदना,सदाचार,संस्कारों की वह शिक्षा दे जाता है जो भविष्य में उसे किसी समस्या का समाधान इन्हीं अनुभवों और अभ्यासों से निकालकर देता है। यह उम्र कथाओं,गीतों को सुनकर उनका अनुसरण करने के विषय में सोचने की है और हमारे बच्चे ड्यूड बनने की जल्दी में लगे हुए हैं।

गीता का अध्ययन कर रहे,इस्कॉन व अन्य संस्थाओं के संपर्क मात्र से बनारस घाटों में वैदिक मंत्रों और ज्योतिष की शिक्षा ले रहे विदेशी छात्र आज यहाँ अध्ययन करके सदाचार की शिक्षा ले रहे हैं और हमारे बच्चे ड्यूड और कूल बनने की दौड़ में पश्चिम की ओर भाग रहें हैं।आज ब्वायज लॉकर रूम जैसी घटनाओं पर आश्चर्य करने वाले अभिभावकों को यह बात समझ लेनी चाहिए कि सोशल मीडिया पर ड्यूड बनने की होड़ में लगी पीढ़ी यह कर रही है तो इसमें आश्चर्य की बात नही हैं। 

समस्या तो अभी होगी,जब प्राथमिक शिक्षा के लिए स्कूल संस्थान मोबाइल की पेशकश करेंगे तब आपके पास दुर्भाग्य से दो ही विकल्प रहने वाले हैं। एक यह कि बच्चों को गेम्स खिलावकर फोन में मनोरंजन करवाना क्योंकि आपने बाहर खेलने के सभी द्वार बंद किए हुए हैं और दूसरा उनकी पढ़ाई उसी मोबाइल के द्वारा करवाना। इस दौर में संवेदनाएँ कैसे उत्पन्न होंगी? एक दिन यही बच्चे इस व्यवस्था से रुग्ण होंगे और तब हमें ऐसी व्यवस्था की आवश्यकता होगी जिससे उनके जीवन का समग्र विकास हो सके।

आज समस्या हम सभी के समक्ष है। इसमें समाधान ढूढकर भी हमीं को लाना होगा । यह भी तय आपको करना है कि आपका बच्चा ड्यूड-कूल बने या फिर भविष्य में भारतीयता को जीवित रखने वाला एक सांस्कृतिक प्रहरी। आज जरूरत है कि सिनेमा ऐसा हो जिसमें परिवार साथ बैठकर उसे देख सके । फिल्मों की समीक्षाएँ घरों पर होंगी तभी समाज का आईना सिनेमा लेकर आ पाएगा । सिनेमा हमेशा ही साहित्य,संगीत,नाटक और सामाजिक गतिविधियों की एक संकलित अभिव्यक्ति रही है। आज जरूरत है ऐसी वेब सीरीजों की जिसे परिवार साथ देख सके और बच्चे मनोरंजन के साथ-२ अपनी संस्कृति को भी स्पर्श कर सकें।यह तभी संभव है जब समाज ऐसी फिल्मों,वेब सीरीजों को नकार दे जिनमें अश्लीलता के सिवा कुछ और नहीं है और सरकार इसे नैतिक जिम्मेदारी समझकर इसमें हस्तक्षेप करे। भारत सरकार इस पर अपना सकारात्मक हस्तक्षेप कर कुछ प्रतिबंध लगाने तक ही सीमित न रहे। इसके लिए पर्याप्त कानून की व्यवस्था कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर चल रहे आवारापन पर नियंत्रण लाने का प्रयास करे।