या देवी सर्वभूतेषु:देवी जो सब प्राणियों में है
इस प्रकार की मानसिकता रखने वाले लोग यूं तो एक विशेष राजनैतिक विचार के समर्थक हैं परंतु इनमें से कुछ धर्म के मामले में कूपढ़ और अनपढ़ लोग भी हैं जिन्हें अपनी भ्रांतियां दूर करने के लिए मेरा यह लेख पढ़ना चाहिए और हमारे धर्म और संस्कृति में नारी को दिए गए स्थान की महत्ता को समझना चाहिए।
भारत की सभ्यता और संस्कृति अति प्राचीन है। इस संस्कृति के कई गूढ़ रहस्य हमें अलौकिक ज्ञान के रूप में मिले हैं। जिसे आज की मिथ्या आधुनिकता से भरी हुई तथाकथित बागी युवा पीढ़ी समझ नहीं पाती। आए दिन कोई ना कोई मूर्खतापूर्ण बयान एक नया विवाद खड़ा कर देता है। इसी कड़ी में एक खास वर्ग है जो मौका मिलते ही भारतीय संस्कृति, में खास तौर पर हिंदू धर्म पर प्रतिगामी होने का आरोप लगाते हुए , भारत को एक पितृसत्तात्मक समाज सिद्ध करने में अपनी ताकत झोंक देता है। इस प्रकार की मानसिकता रखने वाले लोग यूं तो एक विशेष राजनैतिक विचार के समर्थक हैं परंतु इनमें से कुछ धर्म के मामले में कूपढ़ और अनपढ़ लोग भी हैं जिन्हें अपनी भ्रांतियां दूर करने के लिए मेरा यह लेख पढ़ना चाहिए और हमारे धर्म और संस्कृति में नारी को दिए गए स्थान की महत्ता को समझना चाहिए।
वैदिक काल से भी पूर्व भारत में नारीत्व शक्तियों की उपासना की परंपरा रही है। सर्वप्रथम 'प्रकृति' के रूप को हमने नारी का रूप मानकर पूजा। उसके उपरांत पूर्व वैदिक काल में देवी के संदर्भ में हमारा परिचय अदिति (देवताओं की माता) और पृथ्वी (धरती की मातृरूपेण प्रतीक) जैसी देवियों से हुआ। आगे चलकर जब द्रविड़ों और आर्यों का मिलन हुआ तब हमने देवी को सती के रूप में जाना जो कि आदिशक्ति का स्वरुप मानी गई हैं। देवी सती की कथा के अनुसार, वह यज्ञ करने वाले (यानी वैदिक रीतियों को मानने वाले) प्रजापति दक्ष की पुत्री थी और तपस्या में लीन रहने वाले (यानी वैदिक रीतियों को ना मानने वाले व रीति-रिवाज़ों से दूर रहने वाले) शिव की पत्नी हुई, जिन्होंने अपनी कथा से दो भिन्न विचारों को साथ लाने का काम किया।
कालांतर में हमने तीन प्रमुख देवियों के उदय को देखा। ये थीं ऊर्जा की प्रतीक शक्ति, ज्ञानोदय की माध्यम सरस्वती, और पोषण की स्रोत लक्ष्मी। इनके अलावा उषा, शतरूपा, माया, प्रकृति आदि भी देवी की ही संज्ञा है। अज्ञान, अहंकार और अंधकार का नाश करने वाली देवी महाकाली, ब्रह्मविद्या व परमसत्य रूपिणी देवी पार्वती, बुद्धिमत्ता और ज्ञान की निर्गुण स्वरूपा देवी विद्या, वेदमाता गायत्री और पवित्रता की प्रतीक देवी सावित्री बहु प्रचलित रूप से हिंदू धर्म में पूजी जाती हैं।
Pic Credits :- Shounak Tewarie (Art director & Founder of It's ByShounak & Art is well)
हिंदुओं में परमात्मा को मुख्यतः त्रिदेव के रूप में देखा गया है। जिनके नाम हैं ब्रह्मा, विष्णु, और महेश परंतु देवी को परमेश्वरी के रूप में और भी महत्वपूर्ण भूमिका में देखा गया है, क्योंकी वह देवी ही हैं जो त्रिदेवों को उनके देवत्व और दिव्यता का बोध कराती हैं। पौराणिक कथाओं में सरस्वती को ब्रह्मा की पत्नी, लक्ष्मी को विष्णु की पत्नी, और शक्ति को शिव की पत्नी बतलाया गया है। अगर हम त्रिदेवों का त्रिदेवियों के साथ वैवाहिक संबंध को समझने का प्रयास करें तो हम शायद एक गूढ़ तात्पर्य समझ पाएंगे कि चेतना-संबंधी विश्व वस्तुनिष्ठ जगत के बिना अस्तित्व में रह ही नहीं सकता।
इसलिए देवी माहात्म्यम् (जिसे प्रचलित तौर पर दुर्गा सप्तशती के नाम से जाना जाता है) में अपराजिता स्तुति का एक श्लोक देवी को चेतना का रूप मानकर समर्पित किया गया है। जो कि कुछ इस प्रकार है -
या देवी सर्वभुतेषु चेतनेत्यभि-धीयते ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥
इसका अर्थ है -
जो देवी सब प्राणियों में चेतना कहलाती है उनको नमस्कार, नमस्कार, बारंबार नमस्कार है।
चेतना वास्तविकता में वह शक्ति है जो हमें स्वयं को एवं अपने वातावरण के तत्वों को समझने और उनका मूल्यांकन करने में सहायता करती है।
विज्ञान के अनुसार चेतना एक ऐसी अनुभूति है जो मस्तिष्क में पहुँचने वाले अभिगामी आवेगों से उत्पन्न होती है और जिसका अर्थ तुरंत अथवा बाद में समझा जा सकता है।
सरल शब्दों में समझने का प्रयास करें तो ब्रह्मा जो कि निर्माणकर्ता हैं व सृष्टि के रचयिता है वह बिना ज्ञान के कुछ भी सृजन नहीं कर सकते। विष्णु जो सृष्टि के पालनहार हैं वह बिना धन के कुछ भी पोषित नहीं कर सकते, और शिव जिन का कर्तव्य है संहार करना वह भी बिना शक्ति के नाश नहीं कर सकते। ज्ञान, धन और शक्ति वास्तव में त्रिदेवियां यानी सरस्वती, लक्ष्मी और दुर्गा का ही प्रतिरूप हैं और इनके बिना त्रिदेवों का अस्तित्व भी गौण हो जाता है।
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इसी बात को हम दूसरे उदाहरणों से भी समझ सकते हैं। आमतौर पर शाक्त परंपराओं का जुड़ाव और मिलन शैव परंपराओं के साथ देखने को मिलता है परंतु शाक्त और वैष्णव परंपराओं का मिलन जनसाधारण के बीच आम भले ना हो परंतु अत्यंत रोचक अवश्य है। देवी के भक्त मानते हैं कि देवी हमेशा से ही सर्वव्यापिनी रही है। जब विष्णु शयन में हों तब भी और जब विष्णु जागृत अवस्था में हो तब भी। जब भगवान विष्णु निद्रा की अवस्था में होते हैं तो वे जीवन के प्रति संवेदनशील नहीं होते। इस अवधि में देवी योग निद्रा के रूप में विद्यमान रहती है। जब श्री हरि विष्णु जाग जाते हैं तो उनकी चेतना अनुभवों के प्रति संवेदनशील होती है। तब देवी योगमाया का रूप धारण करती है। यही जीवन है। और जब ज्ञान-आलोक होता है तो विष्णु को देवी के योगविद्या स्वरूप की अनुभूति होती है।
यहां विष्णु पुरुष का व देवी स्त्री की प्रतीक है। जीवन में भी ऐसा ही होता है। जब पुरुष थककर विश्राम चाहता है या असंवेदनशील होने लगता है तो स्त्री उसे अपने छांव में लेकर प्रेम प्रदान करती है। जब पुरुष जागकर कर्म करने को आगे बढ़ाता है तो वही स्त्री उसका संबल बनती है, उसे हौसला देती है। और जब पुरुष का परिचय जीवन के वास्तविक ज्ञान से होता है तब स्त्री उसके प्रगति के पथ को प्रशस्त करती है तथा पुरुष को और अधिक सुदृढ़ बनाती है।
देवी माहात्मयम् की अपराजिता स्तुति का ही एक अन्य श्लोक देवी के महामाया स्वरूप की पुष्टि करता है और वह श्लोक है -
या देवी सर्वभुतेषु विष्णुमायेति शब्दिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥
जिसका अर्थ है -
जो देवी सब प्राणियों में विष्णुमाया कहलाती है उनको नमस्कार, नमस्कार, बारंबार नमस्कार है।
शास्त्रों की इन बातों से यह स्पष्ट होता है कि पुरुष के जीवन में नारी का अतुलनीय योगदान और अत्याधिक महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। यह इस बात का संकेत है कि पुरुष और स्त्री हमेशा से एक दूसरे के पूरक हैं। प्राचीन काल से ही हमारे पूर्वजों के ऐसे समानतापूर्ण व उच्च विचार थे, जिसे जन-जन तक पहुंचाने के लिए उन्होंने इन कथाओं का सहारा लिया क्योंकि ये संकल्पनाएं ना केवल एक दूसरे पर आश्रित हैं अपितु इन्हें समझना कठिन भी है। जिन्हें इन कथाओं के माध्यम से सरलतापूर्वक समझाने का प्रयास किया गया है।
जिस प्रकार आंतरिक दर्शन के बिना बाह्य दर्शन अर्थहीन है, जिस प्रकार आत्मा के बिना शरीर का होना निरर्थक है, जिस प्रकार सत्य के बिना धर्म अपूर्ण है। उसी प्रकार स्त्री की संधारणा के बिना पुरुष की संधारणा को समझना असंभव है।
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आज के दौर में जहां हम पर स्त्री शोषण के अनेकों लांछन लगे हुए हैं तथा हमें प्रतिगामी और पितृसत्तात्मक सिद्ध करने की धूर्त चेष्टा की जा रही है , वहां हमें आवश्यकता है कि हम अपने पुरखों के अमूल्य ज्ञान को समाज में साझा करें और अपने माथे पर लगे हुए कलंक को धोकर , स्त्री के लिए आदर्श वातावरण का पुनः निर्माण करें ताकि हम अपनी ज्ञानमय और गौरवशाली सांस्कृतिक विरासत का सिर उठाकर बखान कर सकें।
- सीमांकन सहाय