कविताओं के झरोखे से एक अधूरे किस्से का जिक्र

हम सब यादों और अधूरे किस्सो का जिक्र करते है, ऐसे ही एक अधूरे किस्से का जिक्र है ये लेख , इसे आप चाहे तो पत्र समझकर भी पढ़ सकते है।

April 22, 2021 - 07:08
January 5, 2022 - 12:39
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कविताओं के झरोखे से एक अधूरे किस्से का जिक्र
Yaadein

बे-ख़बर दुनिया को रहने दो ख़बर करते हो क्यूँ 
दोस्तो मेरे दुखों को मुश्तहर करते हो क्यूँ
- इकबाल साजिद

तुम्हारे लिखे लेख को पढ़ कर पता लगा तुम्हे मेरी खैरो खबर नही मिलती है, मेरा मानना है आप जिस जगह को किसी भी वजह से छोड़ देते है या छोड़ने के लिए आप मजबूर होते है , उस जगह लौटने पर यकीन नहीं हैं मेरा। मेरे मानना है जो किसी भी वजह से छोड़कर गए है जब उनकी मजबूरियां खत्म हो जाएंगी वो लौट कर आ जायेंगे अगर उनकी इच्छा हुई लौटने की। 

ऑस्कर वाइल्ड

अगर ये कहूं आजकल पढ़ ही नहीं रहा हूं या जिस तरह से मुझे पढ़ता हुआ तुम जानते थे या जानते जो या जानते होगे उस तरह बीते एक- दो महीने से नहीं पढ़ा है लेकिन हां धीरे धीरे मैं पढ़ने की गति फिरसे बढ़ा रहा हूं। कभी फिक्शन पढ़ने से परहेज था लेकिन करीबी दोस्त ने ऑस्कर वाइल्ड की " डी र्पोफंडिस " भिजवा दी पढ़ने के लिए । तुम्हे पता है क्या मेरी नजर में ये किताब जो एक खत के रूप में लिखी गई है दुनिया का सबसे अच्छा ब्रेकअप लेटर है और मैं भी एकदिन ऐसा खत लिखने और पाने की इच्छा रखता हूं। पुस्तक में जिस तरफ से क्राइस्ट का चित्रण है और एक आर्टिस्ट की व्यथा का चित्रण है मैं उसका लाइफलांग ऑब्लिगेटेड रहने वाला हूं, अब वो पुस्तक इतनी अच्छी है की उसे तीन दिन में एक पन्ना पढ़ने तक सीमित कर दिया है लेकिन दुख ये है पुस्तक खत्म होने को आ गई है और उसके बाद फिक्शन में क्या पढू इसे लेकर कन्फ्यूज्ड हूं काफी, तुम्हारी नज़र में कोई अच्छी फिक्शन की किताब हो तो बताना मैं पढ़ने की पूरी कोशिश करूंगा ये जानते हुए भी की फिक्शन पढ़ना मेरे लिए विराग और विरह के गम को कुरेदने से ज्यादा कुछ नहीं है। 

बीते साल मुराकामी की " साउथ ऑफ द बॉर्डर वेस्ट ऑफ़ द सन " पढ़ी मैने और यकीन मानो मुझे मेरे बचपन की एक दोस्त याद आ गई जिससे कभी बात करनी की हिम्मत नही आई लेकिन आज भी बचपन के दिनो को याद करते हुए उसे दोस्त कहता हूं जबकि उसे कोई खबर नहीं मेरी, लेकिन ये याद काफी दिलखुश करती हैं और कुछ ऐसी ही ये किताब है।

मुराकामी की तस्वीर

बाकी नॉनफिक्शन में किताबे पढ़ी है लेकिन तुम्हे बोर न कर दूं इस डर से नही बताऊंगा लेकिन हा जैसा मैं कहता था इस दौरान मैंने गांधी जी पर काफी कुछ पढ़ने की कोशिश की है, काफी कुछ पढ़ने का सोचा है ,काफी कुछ पढ़ना है और काफी कुछ देखना है गांधी जी पर, तुम्हे नही लगता जैसे ये समय इस देश का है अभी इस समय के संदर्भ में गांधी का क्या महत्व रह जाता है इस पर इंडियन राइटविंग को केन्द्र में रहकर क्या कुछ लिखा जाना चाहिए? मैं क्या लिख सकूंगा समझ नहीं आता लेकिन सोचता हूं कोई इस पर लिखे , कितना दुर्भाग्य है ना इस देश का जो गांधी जी के खिलाफ थे और जिन पर बापू जी की हत्या का आरोप लगता है कपूर कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार वो देश में आज गांधी के सबसे बड़े शिष्य बने हुए है , मुझे इस बात के लिए कांग्रेस और उनके नेताओं से शिकायत है पता नहीं कब हम सब और कांग्रेस , गांधी को रिक्लेम करेंगे। 

देखो मैं फिर भाषण देने की शैली में आ गया , माफी चाहूंगा कभी कभी विचार इतनी तेज़ी से आते है की सबकुछ उड़ाकर ले जाते है फिर पीछे बचता है एक परेशान शख्स। एक किताब अगर मैं तुम्हे पढ़ने के लिए कह सकने का हक रखता हूं तो तुम पढ़ना मुराकामी की "नॉर्वेजियन वुड" मैंने वो किताब १०० पन्नो के बाद पढ़ना बंद कर दिया था  उसमे इतना विरह है वो किताब इतना दुख देती है की समझ नही आता है मैं उसे क्यों पढ़ता हूं, बाकी जैसा तुम कहती हो मैं एमेच्योर हूं शायद इसलिए ही तुम मुझसे ज्यादा और मुझसे अच्छे तरीके से दुख सहना जानती हो और मैं ये तुमसे सीखना चाहूंगा कैसे दुख को मुस्कुराकर सह लेना चाहिए मुझसे नहीं हो पाता लेकिन मैं कोशिश करूंगा।

बाकी मैं जबसे अंतिम बार तुमसे बात हुई थी तबसे लेकर अबतक कुछ बेहतरीन कवियों को पढ़ा है और कुछ कम प्रसिद्ध और गुमनाम कवियों को पढ़ा , उदहारण स्वरूप में नीचे एक कविता लिख रहा हूं उसे पढ़ना ।

ब्रेक अप: कुछ फुटकर नोट्स / अजित सिंह तोमर

अजीत सिंह तोमर जी की तस्वीर

ब्रेक अप

 ब्रेक अप एक अंग्रेजी शब्द था

मगर इसके प्रभाव थे

विशुद्ध देशी किस्म के
यह जुड़कर टूटने की
बात करता था
शब्दकोश में देखा
इसके आगे पीछे कोई शब्द नही था
ये वहाँ उतना ही नितांत अकेला था
जितना अकेला
एक एसएमएस के बाद मैं हो गया था।

ब्रेक अप के बाद
शब्दों के षड्यंत्र
आकार लेना आरम्भ करते
प्रेम को निगल जाता सन्देह
स्मृतियों को चाट जाती युक्तियां
स्पर्शों को भूल जाती देह
अह्म होता शिखर पर
दिल अकेला हँसता
दिमाग की चालाकियों पर
यही हँसी दिख जाती कभी कभी
आंसूओं की शक्ल में।

ब्रेक अप के बाद
मैंने छोड़ दिया पृथ्वी ग्रह
मैं निकल आया प्लूटो की तरफ
मगर वहाँ के चरम एकांत में भी
ब्रेक अप की ध्वनि
मेरा दिशा भरम करती रही
दरअसल वो ध्वनि नही
एक किस्म का शोर था
शोर ब्रह्माण्ड के हर कोने तक
करता रहा मेरा पीछा
जबतक मैं बहरा न हो गया।

ब्रेक अप
सवाल की शक्ल में आया
जवाब की शक्ल में चला गया
सवाल-जवाब के मध्य
रूपांतरित होता हुआ रिश्ता
समुंद्र तल की ऊंचाई से कुछ मीटर
ऊपर का था
जब एक दिन पानी पर
तुम्हारा नाम लिखना चाहा
तब पता चला
कुछ सेंटीमीटर
तुम्हारा तल बदल चुका है
ब्रेक अप एक तरल चीज थी ठोस नही।

ब्रेक अप
आसान नही होता
कहना भी करना भी और जीना भी
ब्रेकअप उतना मुश्किल भी नही होता
जितना मैं सोचता था
इधर ब्रेक अप हुआ
उधर मेरी जगह ले ली
किशोर कुमार लता मंगेशकर ने।

इससे बेहतर कविता मुझे कोई भेज दे तो मैं लिखना छोड़ दूंगा मैं अक्सर ऐसा सोचता हूं और बार बार इस कविता को पढ़ने के बाद भी में हर दिन तकरीबन इस कविता को बीते दो महीनो से रोज पढ़ता हूं और यकीन मानो ये कविता शब्द शब्द मुझे रोमांचित करते है और व्यथा के कारण बनते हैं। 

अब इन कवि की एक और कविता पढ़ो।

तुम बिन / अजित सिंह तोमर

तुम मेरे जीवन में
पूर्ण विराम थे
आधे अधूरे वाक्य
और प्रश्नचिन्ह के बाद
अनिवार्य थी तुम्हारी उपस्थिति
तुम्हारा बिना अर्थ छूटे सब अधूरे
बिगड़ा जीवन का व्याकरण
अब कोई यह तय नही कर पाता
मुझे पढ़ते हुए
उसे कहाँ रुकना है।

तुम मेरे जीवन में
अवसाद की तरह व्याप्त थे
तुम्हारे बिना लगता था खालीपन
तुम रह सकते थे
सुख और दुःख में एक साथ
तुम्हारे बिना
सुख और दुःख में मध्य अटक गया मै
इसलिए
नजर आता हूँ
हँसता-रोता हुआ एक साथ।

दो दिन से मुझे बुखार है
माथे पर रखा हाथ याद आता है मुझे
ताप जांचता हूँ गालों को छूकर
आँखों को बंद करता हूँ तो
नजर आती हो तुम नसीहतों के साथ
बीमार हूँ मगर खुश हूँ
ये खुशी
तुम्हारी बात न मानने की है।

उन दिनों और इन दिनों में
ये एक बुनियादी फर्क है
अब बुरा लग जाता है
बेहद मामूली बातों का
तुम्हारे बिना खुद को बचाना पड़ता है
दुनिया और उसकी धारणाओं से
तुम्हारे साथ लड़ना अनावश्यक लगता था
उन दिनों अनायास लापरवाह था
इन दिनों सायास सावधान हूँ मैं।

इन दो कविताओं को पढ़ लेने के बाद , तुम्हे समय मिले तो कभी सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की तीन कविताओं को एक साथ एक के बाद एक पढ़ना । 

.तुम्हारे लिए / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
२.तुम्हारे साथ रहकर / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
३.तुमसे अलग होकर / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

इन तीन कविताओं में तीन अलग अलग स्थिति है और तीनों स्थिती में सुख के साथ दुख है , हालांकि सुख दुख की मात्रा बढ़ती घटती रहती है लेकिन मेरा ये दुख की तुमसे बेहतर या तुम्हारे बराबर भी कोई ऐसा नही मिला जो हिंदी साहित्य में कविताओं में कवियों में इतनी रुचि लेता हो, उन दिनों की अगर याद आती है जो की वैसे तो ना के बराबर आती है लेकिन तब यही याद आता है की कैसे हमने बशीर बद्र को पढ़ा था कैसे बच्चन पर विचार किया था और कैसे मेरे द्वारा लिखी कविताओं पर तुमने क्रिटिकल थॉट्स रखे थे जो तुमसे बेहतर आज भी कोई नहीं रख सकता , अगर कह सकता तो यही कहता की कम से कम कविताओं पर ही सही बात किया करो।

और जब इन तीन कविताओं को कविता कोश से पढ़ लो तब सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की एक और कविता पढ़ना 
(देश कागज पर बना नक्शा नहीं होता / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना)। मुझे यूं तो सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की सारी कविताएं अच्छी लगती है लेकिन ये चार कविताएं काफी करीब है दिल के और इंसानियत को मेरे अंदर जिसके मरने से मैं डरता हूं उसे बचाई रखती है।


कविताओं में एक कवि की कविता ने मुझे प्रेम पर और अधिक सोचने पर मजबूर किया है जितना शमशेर बहादुर सिंह जी ने नही किया अब उससे ज्यादा आलोक धन्वा जी करने लगे है।

उनकी एक कविता पढ़ो 

अचानक तुम आ जाओ / आलोक धन्वा

इतनी रेलें चलती हैं
भारत में
कभी
कहीं से भी आ सकती हो
मेरे पास

कुछ दिन रहना इस घर में
जो उतना ही तुम्हारा भी है
तुम्हें देखने की प्यास है गहरी
तुम्हें सुनने की

कुछ दिन रहना
जैसे तुम गई नहीं कहीं

मेरे पास समय कम
होता जा रहा है
मेरी प्यारी दोस्त

घनी आबादी का देश मेरा
कितनी औरतें लौटती हैं
शाम होते ही
अपने-अपने घर
कई बार सचमुच लगता है
तुम उनमें ही कहीं
आ रही हो
वही दुबली देह
बारीक चारख़ाने की
सूती साड़ी
कन्धे से झूलता
झालर वाला झोला
और पैरों में चप्पलें
मैं कहता जूते पहनो खिलाड़ियों वाले
भाग-दौड़ में भरोसे के लायक

तुम्हें भी अपने काम में
ज़्यादा मन लगेगा
मुझसे फिर एक बार मिलकर
लौटने पर

दुख-सुख तो
आते जाते रहेंगे
सब कुछ पार्थिव है यहाँ
लेकिन मुलाक़ातें नहीं हैं
पार्थिव
इनकी ताज़गी
रहेगी यहीं
हवा में !
इनसे बनती हैं नई जगहें
एक बार और मिलने के बाद भी
एक बार और मिलने की इच्छा
पृथ्वी पर कभी ख़त्म नहीं होगी

मुझे ये कविता पता है ऐसा लगता है जैसे काम से लौटती हुई स्त्री अपने प्रेमी के लिए रेस लगाकर घर जाती हो ऐसा बिंब देती है और एक उलझन में डालती है की क्या मैं इससे बेहतर और क्या पढ़ पाऊंगा?

और एक कविता पढ़ो जिसे मैंने रवीश कुमार जी के प्राइम टाइम पर उलहाना देने पर किसी को सुनाया था और रवीश जी को जब बताया तो उन्होंने शाबाशी दी थी मुझे।


भागी हुई लड़कियां / आलोक धन्वा

एक

घर की जंजीरें
कितना ज्यादा दिखाई पड़ती हैं
जब घर से कोई लड़की भागती है

क्या उस रात की याद आ रही है
जो पुरानी फिल्मों में बार-बार आती थी
जब भी कोई लड़की घर से भगती थी?
बारिश से घिरे वे पत्थर के लैम्पपोस्ट
महज आंखों की बेचैनी दिखाने भर उनकी रोशनी?

और वे तमाम गाने रजतपरदों पर दीवानगी के
आज अपने ही घर में सच निकले!

क्या तुम यह सोचते थे
कि वे गाने महज अभिनेता-अभिनेत्रियों के लिए
रचे गए?
और वह खतरनाक अभिनय
लैला के ध्वंस का
जो मंच से अटूट उठता हुआ
दर्शकों की निजी जिन्दगियों में फैल जाता था?

दो

तुम तो पढ कर सुनाओगे नहीं
कभी वह खत
जिसे भागने से पहले
वह अपनी मेज पर रख गई
तुम तो छुपाओगे पूरे जमाने से
उसका संवाद
चुराओगे उसका शीशा उसका पारा
उसका आबनूस
उसकी सात पालों वाली नाव
लेकिन कैसे चुराओगे
एक भागी हुई लड़की की उम्र
जो अभी काफी बची हो सकती है
उसके दुपट्टे के झुटपुटे में?

उसकी बची-खुची चीजों को
जला डालोगे?
उसकी अनुपस्थिति को भी जला डालोगे?
जो गूंज रही है उसकी उपस्थिति से
बहुत अधिक
सन्तूर की तरह
केश में

तीन

उसे मिटाओगे
एक भागी हुई लड़की को मिटाओगे
उसके ही घर की हवा से
उसे वहां से भी मिटाओगे
उसका जो बचपन है तुम्हारे भीतर
वहां से भी
मैं जानता हूं
कुलीनता की हिंसा !

लेकिन उसके भागने की बात
याद से नहीं जाएगी
पुरानी पवनचिक्कयों की तरह

वह कोई पहली लड़की नहीं है
जो भागी है
और न वह अन्तिम लड़की होगी
अभी और भी लड़के होंगे
और भी लड़कियां होंगी
जो भागेंगे मार्च के महीने में

लड़की भागती है
जैसे फूलों में गुम होती हुई
तारों में गुम होती हुई
तैराकी की पोशाक में दौड़ती हुई
खचाखच भरे जगरमगर स्टेडियम में

चार

अगर एक लड़की भागती है
तो यह हमेशा जरूरी नहीं है
कि कोई लड़का भी भागा होगा

कई दूसरे जीवन प्रसंग हैं
जिनके साथ वह जा सकती है
कुछ भी कर सकती है
महज जन्म देना ही स्त्री होना नहीं है

तुम्हारे उस टैंक जैसे बंद और मजबूत
घर से बाहर
लड़कियां काफी बदल चुकी हैं
मैं तुम्हें यह इजाजत नहीं दूंगा
कि तुम उसकी सम्भावना की भी तस्करी करो

वह कहीं भी हो सकती है
गिर सकती है
बिखर सकती है
लेकिन वह खुद शामिल होगी सब में
गलतियां भी खुद ही करेगी
सब कुछ देखेगी शुरू से अंत तक
अपना अंत भी देखती हुई जाएगी
किसी दूसरे की मृत्यु नहीं मरेगी

पांच

लड़की भागती है
जैसे सफेद घोड़े पर सवार
लालच और जुए के आरपार
जर्जर दूल्हों से
कितनी धूल उठती है

तुम
जो
पत्नियों को अलग रखते हो
वेश्याओं से
और प्रेमिकाओं को अलग रखते हो
पत्नियों से
कितना आतंकित होते हो
जब स्त्री बेखौफ भटकती है
ढूंढती हुई अपना व्यक्तित्व
एक ही साथ वेश्याओं और पत्नियों
और प्रमिकाओं में !

अब तो वह कहीं भी हो सकती है
उन आगामी देशों में
जहां प्रणय एक काम होगा पूरा का पूरा

छह

कितनी-कितनी लड़कियां
भागती हैं मन ही मन
अपने रतजगे अपनी डायरी में
सचमुच की भागी लड़कियों से
उनकी आबादी बहुत बड़ी है

क्या तुम्हारे लिए कोई लड़की भागी?

क्या तुम्हारी रातों में
एक भी लाल मोरम वाली सड़क नहीं?

क्या तुम्हें दाम्पत्य दे दिया गया?
क्या तुम उसे उठा लाए
अपनी हैसियत अपनी ताकत से?
तुम उठा लाए एक ही बार में
एक स्त्री की तमाम रातें
उसके निधन के बाद की भी रातें !

तुम नहीं रोए पृथ्वी पर एक बार भी
किसी स्त्री के सीने से लगकर

सिर्फ आज की रात रुक जाओ
तुमसे नहीं कहा किसी स्त्री ने
सिर्फ आज की रात रुक जाओ
कितनी-कितनी बार कहा कितनी स्त्रियों ने दुनिया भर में
समुद्र के तमाम दरवाजों तक दौड़ती हुई आयीं वे

सिर्फ आज की रात रुक जाओ
और दुनिया जब तक रहेगी
सिर्फ आज की रात भी रहेगी

मेरा बस अगर कभी चला तो मैं इस कविता को इस देश के हर क्लास में , बस में, रेल में और किताब में पढ़ने के लिए छपवा दूं, मेरा मानना है ये कविता फेमिनिस्ट मूवमेंट के लिटरेरी इंस्पिरेशन के तौर पर काम कर सकती है बशर्ते की इस कविता को संवेदना के साथ पढ़ा जाए ना की इसे अमलगेशन ऑफ फिक्शन एंड नॉनफिक्शन को श्रेणि में लाकर पढ़ा जाए जैसा आजकल लिखते हुए और पढ़ते हुए कर दिया गया है।


विनोद कुमार शुक्ल पर कैरावन मैगजीन में पढ़ा और आशुतोष भारद्वाज द्वारा( इंडियन एक्सप्रेस में लिखे इनके सारे लेख पढ़ जाना )  लिखा लेख इंडियन एक्सप्रेस में पढ़ने के बाद कविताएं पढ़ने की कोशिश की है ।

विनोद जी की ये कविता पढ़ो और देखो शब्द का जादू कैसे चढ़ता है तुम्हारे ऊपर।

कोई अधूरा पूरा नहीं होता / विनोद कुमार शुक्ल

 कोई अधूरा पूरा नहीं होता
  और एक नया शुरू होकर
   नया अधूरा छूट जाता
    शुरू से इतने सारे
     कि गिने जाने पर भी अधूरे छूट जाते
     परंतु इस असमाप्त –
     अधूरे से भरे जीवन को
     पूरा माना जाए, अधूरा नहीं
     कि जीवन को भरपूर जिया गया
इस भरपूर जीवन में
मृत्यु के ठीक पहले भी मैं
एक नई कविता शुरू कर सकता हूं
मृत्यु के बहुत पहले की कविता की तरह
जीवन की अपनी पहली कविता की तरह

किसी नए अधूरे को अंतिम न माना जाए ।

वही अब विनोद जी की ये कविता पढ़ो

बोलने में कम से कम बोलूँ / विनोद कुमार शुक्ल

बोलने में कम से कम बोलूँ
कभी बोलूँ, अधिकतम न बोलूँ
इतना कम कि किसी दिन एक बात
बार-बार बोलूँ
जैसे कोयल की बार-बार की कूक
फिर चुप ।

मेरे अधिकतम चुप को सब जान लें
जो कहा नहीं गया, सब कह दिया गया का चुप ।
पहाड़, आकाश, सूर्य, चंद्रमा के बरक्स
एक छोटा सा टिम-टिमाता
मेरा भी शाश्वत छोटा-सा चुप ।

ग़लत पर घात लगाकर हमला करने के सन्नाटे में
मेरा एक चुप-
चलने के पहले
एक बंदूक का चुप ।

और बंदूक जो कभी नहीं चली
इतनी शांति का
हमेशा-की मेरी उम्मीद का चुप ।

बरगद के विशाल एकांत के नीचे
सम्हाल कर रखा हुआ
जलते दिये का चुप ।

भीड़ के हल्ले में
कुचलने से बचा यह मेरा चुप,
अपनों के जुलूस में बोलूँ
कि बोलने को सम्हालकर रखूँ का चुप ।

मुझे ये कविता पढ़ने के बाद गांधी याद आते है जो कहते है " मौन सबसे सशक्त भाषण है। धीरे-धीरे दुनिया आपको सुनेगी।"  

या फिर ये कविता पढ़ो विनोद कुमार शुक्ल जी की 

प्रेम की जगह अनिश्चित है / विनोद कुमार शुक्ल

प्रेम की जगह अनिश्चित है
यहाँ कोई नहीं होगा की जगह भी नहीं है

आड़ की ओट में होता है
कि अब कोई नहीं देखेगा
पर सबके हिस्‍से का एकांत
और सबके हिस्‍से की ओट निश्चित है

वहाँ बहुत दोपहर में भी
थोड़ा-सा अंधेरा है
जैसे बदली छाई हो
बल्कि रात हो रही है
और रात हो गई हो

बहुत अंधेरे के ज्‍यादा अंधेरे में
प्रेम के सुख में
पलक मूंद लेने का अंधकार है
अपने हिस्‍से की आड़ में
अचानक स्‍पर्श करते
उपस्थित हुए
और स्‍पर्श करते, हुए बिदा

इन तीन कविताओं को अब जब तुमने पढ़ लिया है तब यही कहूंगा जितना हो सके विनोद जी को पढ़ने की कोशिश करो इस उम्मीद के साथ की कविता हमेशा हमेशा के लिए हम सबके अंदर रहेगी , कविता नही मरेगी भले कवि मरते रहे या मारते रहे कविता को।

तुम्हे पता है कवि कविता को कब मार देता है? जब वो बिना संवेदना के किसी को खुश करने के लिए,किसी के अहम की संतुष्टि के लिए कविताएं लिखने लगता है और कविता को जरिया बनाता है किसी का प्रेम पाने के लिए , बिस्तर में जाने के लिए या फिर अपनी सामाजिक हैसियत और आर्थिक  स्थिति को बेहतर करने के लिए कविताएं लिखने लगता है। जिसके कारण कविता मरी है , कवि तो पहले ही मर चुका होता हैं या वो कवि हैं ये भी लगातार विवाद का मुआमला है। 

नीचे एक कविता है उसका हिंदी अनुवाद पढ़ो, मैने इसे जब भी पढ़ा तब मुझे लगा मेरी हर कविता हर लेख इस प्रक्रिया से होकर गुजरना चाहिए।

अगर फूट के ना निकले
बिना किसी वजह के
मत लिखो।

अगर बिना पूछे-बताये ना बरस पड़े,
तुम्हारे दिल और दिमाग़
और जुबां और पेट से
मत लिखो।

अगर घंटों बैठना पड़े
अपने कम्प्यूटर को ताकते
या टाइपराइटर पर बोझ बने हुए
खोजते कमीने शब्दों को
मत लिखो।

अगर पैसे के लिए
या शोहरत के लिए लिख रहे हो
मत लिखो।

अगर लिख रहे हो
कि ये रास्ता है
किसी औरत को बिस्तर तक लाने का
तो मत लिखो।

अगर बैठ के तुम्हें
बार-बार करने पड़ते हैं सुधार
जाने दो।
अगर लिखने का सोच के ही
होने लगता है तनाव
छोड़ दो।

अगर किसी और की तरह
लिखने की फ़िराक़ में हो
तो भूल ही जाओ
अगर वक़्त लगता है
कि चिंघाड़े तुम्हारी अपनी आवाज़
तो उसे वक़्त दो
पर ना चिंघाड़े ग़र फिर भी
तो सामान बाँध लो।

अगर पहले पढ़ के सुनाना पड़ता है
अपनी बीवी या प्रेमिका या प्रेमी
या माँ-बाप या अजनबी आलोचक को
तो तुम कच्चे हो अभी।

अनगिनत लेखकों से मत बनो
उन हज़ारों की तरह
जो कहते हैं खुद को ‘लेखक’
उदास और खोखले और नक्शेबाज़
स्व-मैथुन के मारे हुए।

दुनिया भर की लाइब्रेरियां
त्रस्त हो चुकी हैं
तुम्हारी क़ौम से
मत बढ़ाओ इसे।
दुहाई है, मत बढ़ाओ।
जब तक तुम्हारी आत्मा की ज़मीन से
लम्बी-दूरी के मारक रॉकेट जैसे
नहीं निकलते लफ़्ज़,
जब तक चुप रहना
तुम्हें पूरे चाँद की रात के भेड़िये सा
नहीं कर देता पागल या हत्यारा,
जब तक कि तुम्हारी नाभि का सूरज
तुम्हारे कमरे में आग नहीं लगा देता
मत मत मत लिखो।

क्यूंकि जब वक़्त आएगा
और तुम्हें मिला होगा वो वरदान
तुम लिखोगे और लिखते रहोगे
जब तक भस्म नहीं हो जाते
तुम या यह हवस।

कोई और तरीका नहीं है
कोई और तरीका नहीं था कभी।

मेरा मानना है हम सब जो कविता लिख रहे हैं या कविता जीने की कोशिश कर रहे है हमे चार्ल्स बुकोवस्की की इस कविता को आदर्श मानकर कविता लिखना , पढ़ना और जीना चाहिए।

एक और कवि है आर चेतनक्रांति उन्हे और उनकी कविताओं को पढ़ने का प्रयतन किया है , फेसबुक में इनसे बात करनी की कोशिश भी की है लेकिन ये असहज कर देते है अपनी कविता से अपनी बातो से मुझे और अगर सच कहूं तो मैं इन्हे पढ़ना तो चाहता हूं लेकिन इनसे और इनके बारे में बात करने से परहेज करने लगा हूं ।

उनकी ये कविता पढ़ो,

आगे के बारे में एक ईर्ष्यासूत कविता / आर. चेतनक्रांति

वे तो बढ़े ही चले जा रहे थे
आगे, और आगे
और आगे के बारे में उनकी राय तय हो चुकी थी
कि जहाँ पीछेवालों की इच्छाएँ जाकर पसर जाएँ
कि जहाँ आप दयनीयता पर क्रोध करने को स्वतन्त्रा हों
कि जहाँ जमाने-भर की ईर्ष्याएँ
आपका रास्ता बुहारें
उस जगह को आगे कहते हैं
वे आगे वहाँ
दुनिया-भर की ईर्ष्या पर मुटिया रहे थे
और बीच-बीच में फोन करके पूछते थे,
हैलो, अरे तुम कहाँ ठहरे हुए हो ?
रास्ता उन्हें अध्यात्म की तरह लगता था
जैसे किसी को धर्म का डर लग जाता है
कि लीक छोड़कर
चाय की दूकान तक भी जाते
तो ‘चलूँ-चलूँ’ से छका मारते
एक किसी भी दिन
वे उतरते नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर
और शहर के सबसे स्मार्ट रिक्शावाले को
रास्ता बताते हुए शहर पार करने लगते
कि जैसे बरसों से इसे जानते हों
वे अपने भीतर और शहर में
एक खाली कुआँ तलाश करते
जो उन्हें मिल जाता
वे एक मकसद का आविष्कार करते
जो पिछले एक करोड़ साल से इस दुनिया में नहीं था
वे किराए के पहले कमरे की कुँआरी दीवार की तरह
मुँह करके खड़े होते, और कहतेदृ
कि जो जा चुके हैं आगे, उन्हें मेरा सलाम भेजो
कि मैं आ गया हूँ
कि यह लकीर जिसे तुम रास्ता कहती हो
अब बढ़ती ही जाएगी, बढ़ती ही जाएगी मेरे पैरों के लिए
कि मैं रुकने के लिए नहीं हूँ
चलो, नीविबन्ध खोलो, झुको और खिड़की बन जाओ
और ऊँचाइयों पर खुदाई शुरू कर देते
कि कुँओं को पाटना तो पहला काम था
कुएँ जो लालसा के थे
यूँ एक करोड़ साल बाद
राजधानी दिल्ली में एक और सृष्टि का निर्माण शुरू होता
एक बौना आदमी
आसमान के इस कोने से उस कोने तक तार बाँध देता
कि यहाँ मेरे कपड़े सूखेंगे
भीड़ के मस्तक को खोखला कर एक अहाता निकाल देता
कि यहाँ मेरा स्कूटर, मेरी कार खड़े होंगे
दुनिया के सारे आदमियों को
एक-के-ऊपर-एक चिपकाकर अन्तरिक्ष तक पहुँचा देता
कि इस सीढ़ी से कभी-कभी मैं इन्द्रलोक
जाया करूँगा जस्ट फॉर ए चेंज

और इन्द्रलोक पहुँचकर अकसर वह फोन करता,
पूछता, हैलो, अरे तुम कहाँ अटक गए ?
इस तरह इन छवियों से छन-छनकर
जो आगे आता था
वह लगभग-लगभग दिव्य था
लगभग-लगभग एक तिलिस्म
कि हर गली के हर मोड़ से उसके लिए रास्ता जाता था
लेकिन सबके लिए नहीं
कि वह दुकानों-दुकानों बिकता था पुड़िया में
पर सबके लिए नहीं
कि वह कभी-कभी सन्तई हाँक लगाता था
खड़ा हो बीच बजार
लेकिन वह भी सबके लिए नहीं
रहस्य यही था
कि वह सबका था
लेकिन सबके लिए नहीं था
ऐसे उस आगे की आँत में उतरे जाते थे कुछ--
अंग्रेजी दवाई-सेदृतेज़ और रंगीन
और कुछ अटक गए थे, ठीक मुहाने पर आकर कब्ज की तरह
और सुनते थे कभी-कभी
पब्लिक बूथ पर हवा में लटके
चोंगे से रिसती हुई एक हँसती-सी आवाज़
कि, हैलोऽऽ, अरे तुम कहाँ फँसे हो जानी !


या फिर इन्ही की ये कविता पढ़ो: 
छटपटाकर जगह बदलना / आर. चेतनक्रांति

मैंने जब साधुता से कहा–विदा
और घूमकर दुर्जनता की बाँह गही

वह कोई आम-सा दिन था
खूब सारी ख़ूबियों की ख़ूब सारी गलियों में
आवाजाही तेज़ थी
मिन्दर के चबूतरे पर
एक चिन्तित आदमी
सिर झुकाए, आँखें मूंदे
भूखों को भोजन बाँट रहा था
वह इतना डर गया था
कि भूखे के हाथ काँपते तो पत्तल मुँह पे दे मारता

बैठे-बैठे
एक लम्बा अरसा बीत गया

मैं मंटो को नहीं भूल सकता और न मैं मानता हूं की समाज मंटो को भुला है।ये कहने के मेरा कारण है की अभी हाल में मंटो पर एक सिनेमा आया है जिसमे नवाजुद्दीन सिद्दीकी सरीखे अभिनेता ने काम किया है और अगर समाज मंटो को भूल जाता तो क्या उनपर सिनेमा बनाता, यूं तो समाज की समझ मंटो के लेखन से विकसित नहीं होने वाली क्योंकि मूलतः समाज पढ़ता नही है वरना सामाजिक कुरीतियां आज भी समाज में विध्यमान नहीं होती और उससे भी बड़ा प्रश्न है,क्या मंटो समाज को भूलने देंगे खुदको ? मैं मानता हूं मंटो के शब्द बार बार लौटकर आने है जैसे सफदर हाशमी को बार बार लौटकर आने पड़ेगा और जब तक वो नही आते तबतक हम जैसे को सफदर हाशमी की तरह चौराहों में खुदको मरवाना पड़ेगा नफरती ताकतों के हाथों.

मंटो की एक कहानी मेरी एक दोस्त ने मुझे भेजी था , कहानी का शीर्षक है" बादशाहत का खात्मा" , मेरे लिए ये अफसाना पढ़ना काफी दुखी करने वाला था क्योंकि मेरी निजी जिंदगी का प्रतिबिंब मैं इस अफसाने में पाता हूं, बाकी दूसरी बात जिसके लिए मंटो मुझे ज्यादा पसंद है वो है उनका लेख जिसमे वो बताते है वो क्यों लिखते है। 

मंटो लिखते है: 

("मैं क्यों लिखता हूँ?”

यह एक ऐसा सवाल है कि मैं क्यों खाता हूँ… मैं क्यों पीता हूँ… लेकिन इस दृष्टि से मुख़तलिफ है कि खाने और पीने पर मुझे रुपए खर्च करने पड़ते हैं और जब लिखता हूँ तो मुझे नकदी की सूरत में कुछ खर्च करना नहीं पड़ता। पर जब गहराई में जाता हूँ तो पता चलता है कि यह बात ग़लत है इसलिए कि मैं रुपए के बलबूते पर ही लिखता हूँ। अगर मुझे खाना-पीना न मिले तो ज़ाहिर है कि मेरे अंग इस हालत में नहीं होंगे कि मैं कलम हाथ में पकड़ सकूँ। हो सकता है, फ़ाकाकशी की हालत में दिमाग चलता रहे, मगर हाथ का चलना तो ज़रूरी है। हाथ न चले तो ज़बान ही चलनी चाहिए। यह कितनी बड़ी ट्रेजडी है कि इंसान खाए-पिए बग़ैर कुछ भी नहीं कर सकता।

लोग कला को इतना ऊँचा रुतबा देते हैं कि इसके झंडे सातवें असमान से मिला देते हैं। मगर क्या यह हक़ीक़त नहीं कि हर श्रेष्ठ और महान चीज़ एक सूखी रोटी की मोहताज है? मैं लिखता हूँ इसलिए कि मुझे कुछ कहना होता है। मैं लिखता हूँ इसलिए कि मैं कुछ कमा सकूँ ताकि मैं कुछ कहने के काबिल हो सकूँ। रोटी और कला का संबंध प्रगट रूप से अजीब-सा मालूम होता है, लेकिन क्या किया जाए कि ख़ुदाबंद ताला को यही मंज़ूर है। वह ख़ुद को हर चीज़ से निरपेक्ष कहता है - यह गलत है। वह निरपेक्ष हरगिज नहीं है। इसको इबादत चाहिए। और इबादत बड़ी ही नर्म और नाज़ुक रोटी है बल्कि यूँ कहिए, चुपड़ी हुई रोटी है जिससे वह अपना पेट भरता है।

मेरे पड़ोस में अगर कोई औरत हर रोज़ खाविंद से मार खाती है और फिर उसके जूते साफ़ करती है तो मेरे दिल में उसके लिए ज़र्रा बराबर हमदर्दी पैदा नहीं होती। लेकिन जब मेरे पड़ोस में कोई औरत अपने खाविंद से लड़कर और खुदकशी की धमकी देकर सिनेमा देखने चली जाती है और मैं खाविंद को दो घंटे सख़्त परेशानी की हालत में देखता हूँ तो मुझे दोनों से एक अजीब व ग़रीब क़िस्म की हमदर्दी पैदा हो जाती है। किसी लड़के को लड़की से इश्क हो जाए तो मैं उसे ज़ुकाम के बराबर अहमियत नहीं देता, मगर वह लड़का मेरी तवज्जो को अपनी तरफ ज़रूर खींचेगा जो जाहिर करे कि उस पर सैकड़ों लड़कियाँ जान देती हैं लेकिन असल में वह मुहब्बत का इतना ही भूखा है कि जितना बंगाल का भूख से पीड़ित बाशिंदा। इस बज़ाहिर कामयाब आशिक की रंगीन बातों में जो ट्रेजडी सिसकियाँ भरती होगी, उसको मैं अपने दिल के कानों से सुनूंगा और दूसरों को सुनाऊंगा।

चक्की पीसने वाली औरत जो दिन भर काम करती है और रात को इत्मिनान से सो जाती है, मेरे अफ़सानों की हिरोइन नहीं हो सकती। मेरी हिरोइन चकले की एक टखयाई रंडी हो सकती है। जो रात को जागती है और दिन को सोते में कभी-कभी यह डरावना ख्वाब देखकर उठ बैठती है कि बुढ़ापा उसके दरवाज़े पर दस्तक देने आ रहा है। उसके भारी-भारी पपोटे, जिनमें वर्षों की उचटी हुई नींद जम गई है, मेरे अफ़सानों का मौजूँ (विषय) बन सकते हैं। उसकी गलाजत, उसकी बीमारियाँ, उसका चिड़चिड़ापन, उसकी गालियाँ-ये सब मुझे भाती हैं - मैं उसके मुताल्लिक लिखता हूँ और घरेलू औरतों की शस्ताकलामियों, उनकी सेहत और उनकी नफ़ासत पसंदी को नज़रअंदाज कर जाता हूँ। सआदत हसन मंटो लिखता है इसलिए कि यह खुदा जितना बड़ा अफसाना साज और शायर नहीं, यह उसकी आजिजी जो उससे लिखवाती है।

मैं जानता हूँ कि मेरी शख्सियत बहुत बड़ी है और उर्दू साहित्य में मेरा बड़ा नाम है। अगर यह ख़ुशफ़हमी न हो तो ज़िदगी और भी मुश्किल बन जाए। पर मेरे लिए यह एक तल्ख़ हक़ीकत है कि अपने मुल्क में, जिसे पाकिस्तान कहते हैं, मैं अपना सही स्थान ढूंढ नहीं पाया हूँ। यही वजह है कि मेरी रूह बेचैन रहती है। मैं कभी पागलखाने में और कभी अस्पताल में रहता हूँ। मुझसे पूछा जाता है कि मैं शराब से अपना पीछा क्यों नहीं छुड़ा लेता? मैं अपनी जिंदगी का तीन-चौथाई हिस्सा बदपरहेजियों की भेंट चढ़ा चुका हूँ। अब तो यह हालत है- मैं कभी पागलखाने में और कभी अस्पताल में रहता हूँ। मैं समझता हूँ कि जिंदगी अगर परहेज़ से गुजारी जाए तो एक क़ैद है। अगर वह बदपरहेजियों से गुज़ारी जाए तो भी एक क़ैद है। किसी न किसी तरह हमें इस जुराब के धागे का एक सिरा पकड़कर उधेड़ते जाना है और बस।

मैं अफ़साना क्यों कर लिखता हूँ? 

मुझसे कहा गया है कि मैं यह बताऊँ कि मैं अफ़साना क्यों कर लिखता हूँ? यह 'क्यों कर' मेरी समझ में नहीं आया। 'क्यों कर' का अर्थ शब्दकोश में तो यह मिलता है - कैसे और किस तरह?

अब आपको क्या बताऊँ कि मैं अफ़साना क्योंकर लिखता हूँ। यह बड़ी उलझन की बात है। अगर में 'किस तरह' को पेशनज़र रखूँ को यह जवाब दे सकता हूँ कि अपने कमरे में सोफे पर बैठ जाता हूँ। कागज़-क़लम पकड़ता हूँ और बिस्मिल्लाह करके अफ़साना लिखना शुरू कर देता हूँ। मेरी तीन बच्चियाँ शोर मचा रही होती हैं। मैं उनसे बातें भी करता हूँ। उनकी आपसी लड़ाइयों का फैसला भी करता हूँ, अपने लिए सलाद भी तैयार करता हूँ। अगर कोई मिलने वाला आ जाए तो उसकी खातिरदारी भी करता हूँ, मगर अफ़साना लिखे जाता हूँ।

अब 'कैसे' सवाल आए तो मैं कहूँगा कि मैं वैसे ही अफ़साने लिखता हूँ जिस तरह खाना खाता हूँ, गुसल करता हूँ, सिगरेट पीता हूँ और झक मारता हूँ। अगर यह पूछा जाए कि मैं अफ़साना 'क्यों' लिखता हूँ तो इसका जवाब हाज़िर है। मैं अफ़साना अव्वल तो इसलिए लिखता हूँ कि मुझे अफ़साना लिखने की शराब की तरह लत पड़ी हुई है। मैं अफ़साना न लिखूं तो मुझे ऐसा महसूस होता है कि मैंने कपड़े नहीं पहने हैं या मैंने गुसल नहीं किया या मैंने शराब नहीं पी।

मैं अफ़साना नहीं लिखता, हकीकत यह है कि अफ़साना मुझे लिखता है। मैं बहुत कम पढ़ा लिखा आदमी हूँ। यूँ तो मैने 20 से ऊपर किताबें लिखी हैं, लेकिन मुझे कभी कभी हैरत होती है कि यह कौन है जिसने इस कदर अच्छे अफ़साने लिखे हैं, जिन पर आए दिन मुकद्दमे चलते रहते हैं।

जब कलम मेरे हाथ में न हो तो मैं सिर्फ़ सआदत हसन होता हूँ जिसे उर्दू आती है न फ़ारसी, न अंग्रेजी, न फ्रांसीसी। अफ़साना मेरे दिमाग में नहीं, जेब में होता है जिसकी मुझे कोई ख़बर नहीं होती। मैं अपने दिमाग पर ज़ोर देता हूँ कि कोई अफ़साना निकल आए। कहानीकार बनने की भी बहुत कोशिश करता हूँ, सिगरेट फूँकता रहता हूँ मगर अफ़साना दिमाग से बाहर नहीं निकलता है। आख़िर थक-हार कर बाँझ औरत की तरह लेट जाता हूँ। अनलिखे अफ़साने के दाम पेशगी वसूल कर चुका हूँ। इसलिए बड़ी कोफ़्त होती है। करवटें बदलता हूँ। उठकर अपनी चिड़ियों को दाने डालता हूँ। बच्चों को झूला झुलाता हूँ। घर का कूड़ा-करकट साफ़ करता हूँ। जूते, नन्हे मुन्हें जूते, जो घर में जहाँ-जहाँ बिखरे होते हैं, उठाकर एक जगह रखता हूँ। मगर कम्बख़्त अफ़साना जो मेरी जेब में पड़ा होता है मेरे ज़हन में नहीं उतरता-और मैं तिलमिलाता रहता हूँ।

जब बहुत ज़्यादा कोफ़्त होती है तो बाथरूम में चला जाता हूँ, मगर वहाँ से भी कुछ हासिल नहीं होता। सुना हुआ है कि हर बड़ा आदमी गुसलखाने में सोचता है। मगर मुझे तजुर्बे से यह मालूम हुआ है कि मैं बड़ा आदमी नहीं, इसलिए कि मैं गुसलखाने में नहीं सोच सकता। लेकिन हैरत है कि फिर भी मैं हिंदुस्तान और पाकिस्तान का बहुत बड़ा कहानीकार हूँ। मैं यही कह सकता हूँ कि या तो यह मेरे आलोचकों की खुशफ़हमी है या मैं उनकी आँखों में धूल झोंक रहा हूँ। उन पर कोई जादू कर रहा हूँ। 

माफ़ कीजिएगा, मैं गुसलखाने में चला गया। किस्सा यह है कि मैं खुदा को हाज़िर-नाज़िर रखकर कहता हूँ कि मुझे इस बारे में कोई इल्म नहीं कि मैं अफसाना क्यों कर लिखता हूँ और कैसे लिखता हूँ। अक्सर ऐसा हुआ है कि जब मैं लाचार हो गया हूँ तो मेरी बीवी, जो संभव है यहाँ मौजूद है, आई और उसने मुझसे कहा-- आप सोचिए नहीं, कलम उठाइए और लिखना शुरू कर दीजिए।

मैं इसके कहने पर कलम या पैंसिल उठाता हूँ और लिखना शुरू कर देता हूँ- दिमाग बिल्कुल ख़ाली होता है लेकिन जेब भरी होती है, खुद-ब-खुद कोई अफसाना उछलकर बाहर आ जाता है। मैं खुद को इस दृष्टि से कहानीकार, नहीं, जेबकतरा समझता हूँ जो अपनी जेब खुद ही काटता है और आपके हवाले कर देता हूँ-मुझ जैसा भी बेवकूफ़ दुनिया में कोई और होगा?)

तुमने पूछा है क्या मुझे तुम्हारी याद आती थी या आई है? अगर सच कहूं तो याद आती थी लेकिन ठहरती नही थी , कभी छह आठ महीने में एक दो बार आई होगी उससे ज्यादा कुछ याद नहीं आई है,शायद इसलिए की याद आने का कोई कारण न था , ना कोई किताब पढ़कर सुनाने का वादा था और न किसी मुलाकात का।

अब इसपर की जो फैसला तुमने लिए वो सही है या गलत इसपर मेरा कोई विचार नहीं है , ये फैसला तुम्हारे इंडिविजुअल लिबर्टी के दायरे में थे और उस हिस्से का अधिकार था। उसपर मैं कुछ नहीं कहना चाहता बस एक शेर जॉन एलिया का की:

तुम को यहाँ के साया ओ परतव से क्या ग़रज़ 

तुम अपने हक़ में बीच की दीवार ही रहो 

भूत में रहने से कोई फायदा नही है , क्या सही था या क्या गलत हुआ इसपर सोचने से अच्छा है वर्तमान में क्या सही किया जा सकता है इस पर सोचा जाना और उस पर कार्य किया जाना।

बाकी पापा नक्सल जोन में सर्व कर रहे है इसलिए बस्तर और उसके इतिहास और साहित्य और भारत के नक्सलवाद के विषय में थोड़ा बहुत पढ़ने की कोशिश करता हूं और यूट्यूब पर बस्तर टॉकीज नाम के यूट्यूब चैनल पर बस्तर पर खबरों को सुनता हूं और यकीन मानो काफी डरने लगा हूं।जैसे नंदिनी सुंदर की The Burning Forest: India's War in Bastar (Juggernaut Press, 2016) पढ़ी और राहुल पंडित की hello Bastar पढ़ी। पता है मेरा मानना है नक्सल समस्या को रिसोर्स कंट्रोल को एक लड़ाई के तौर पर देखा जाना चाहिए। 

गांधी जिंदा रहते तो ऐसी स्थिति होती क्या? नक्सल समस्या को क्या सरकार आदिवासी, नक्सल और सरकार खुद को स्टेकहोल्डर मानकर इस स्थिति से निपट सकते है लेकिन पता नहीं क्यों ये समस्या सुलझती नहीं है। इसपर और अच्छे से The Death Script: Dreams and Delusions in Naxal Country जो आशुतोष भारद्वाज जी ने लिखी हैं उसमे पढ़ा जा सकता है और वॉकिंग विथ कॉमरेड जो अरुंधती रॉय जी ने लिखी है लेकिन क्या हमारा समाज और हमारी राजनीति को हर विषय को राष्ट्रवाद के ऐनक से देखने के आदि है? क्या वो न्याय, समता और समानता के उद्देश्य से देखेंगे? पता नहीं लेकिन एक डर हमेशा बना रहता है और मुझे कमजोर करता रहता है। मेरा मानना है इंडियन स्टेट की सबसे बड़ी विफलता है ५० सालो के बाद भी नक्सल समस्या को न सुलझा पाना । ना कोई पॉलिसी दिखती है ना कोई विजन सिर्फ हठधर्मिता है और कुछ नही।

पता नही कब अखबार पढ़ने की आदत छूट गई लेकिन अब उसकी जगह मैने चकमक नाम की बाल पत्रिका पढ़ना शुरू किया है और मुझे पढ़कर काफी सुकून आता है । बचपन में जो आनंद बाल भास्कर और चंपक पढ़कर आता था अब वही चकमक पढ़कर आता है , उसमे कविता , कहानी है जो मुझे बड़े लोगों की दुनिया से ज्यादा अच्छा लगता है, बच्चे झूठ नहीं बोलते और न उनके लिए लोग झूठ लिखते है। मैंने कभी नहीं देखा की बच्चो के कार्टून में किसी को जातिवाद , महिला शोषण या धार्मिक उन्माद फैलते हुए ये सिर्फ अखबारों , आज के बड़े अखबारों और न्यूज चैनल में होता हैं, हमारे दौर का मीडिया बहुसंख्यकवाद के नशे में चूर होगया हैं, उसे शोषण न ही दिखता हैं न उसे धार्मिक उन्माद और सरकार की नाकामिया दिखती है। हम ऐसे मीडिया के विभाजित दौर में है जब सिर्फ इतिहास को गलतियों पर बात होती है और इसे के सहारे पूरा देश विश्व गुरु बनने की कपोल कल्पना में मंत्र मुग्ध है। बाकी किसकी कलम कितनी ताकतवर और कितनी प्रभावी है ये तो आने वाला वक्त बताएगा जब रेडियो रवांडा के तर्ज पर कभी टीवी ज़ी या टीवी रिपब्लिक कहा जायेगा और वो सब जनाब जो आज आग लगा रहे है कल जवाबदेह होंगे और हम सब उनसे मिलकर जवाब मागेंगे। 

क्या देखता हूं और कौनसी शॉर्ट फिल्म देखी है इस पर जवाब देने में शायद असमर्थ हो सकता हूं। कम देखा है या कहूं की ना के बराबर सिनेमा देखा है जितना मैंने पहले देखा था या देखा करता था।  इरफान खान की तकरीबन आधी दर्जन पिक्चर देखी और संतुष्ट हुआ हूं देखकर । कुछ विदेशी सिनेमा में मैने " डेड पोएट्स सोसायटी "देखी हैं और इस कारण से कविता और कवियों को ज्यादा गंभीरता से लेने लग गया हूं मैं। सोचता हूं मुझे भी क्या कभी जॉन कीटिंग जैसे प्रोफेसर मिलेंगे जो कविता के प्रति धकेल देंगे और बचाने के लिए मार्ग सिखाएंगे या कहूं तो मुझे अशोक वाजपेई जी ने जो समझाया वो मेरी कविता और साहित्य को बचाकर रखेगा, तुम जरूर सोच रहे होगे मैं अशोक जी से कहा मिला , मैं उनके घर गया था सेकंड सेमेस्टर में शायद और हिंदी विभाग के लिए उन्हें बुलाने की जिम्मेदारी मुझे दी गई थी।

बाकी लिखने को और भी बहुत कुछ है लेकिन मेरा मानना है विचारो को , स्मृतियों को सहेजना चाहिए अपने पास रखना चाहिए व्यक्ति को न की सबकुछ सामने वालो से बांट दिया जाए। नदी की तेज धारा के समान विचार बहते गए है, शायद इसलिए ही ये लेख काफी लंबा हो गया है नदी की धारा को रोकने का सामर्थ्य कमसे  कम मुझ में तो नही है। मैं बांध बनाकर अपने विचारो को विस्थापित नही कर सकता जैसा सरदार सरोवर बांध के वक्त में सरकार ने वहां के स्थाई निवासियों के साथ किया था। बांध से विस्थापित लोगो के बारे में अरुंधती रॉय जी की पुस्तक , my seditious heart में पढ़ा जा सकता है।

: अभिषेक 

Abhishek Tripathi तभी लिखूंगा जब वो मौन से बेहतर होगा।