Wild species: वन्य जीवों एवं वनस्पतियों की प्रजातियों के बचाव में एक और नई पहल

Sixth Mass Extinction  को Anthropocene Extinction  भी कहा जा रहा है, जिसका हिंदी में अर्थ है वन्य-जीवों, वनस्पतियों का जो वर्तमान समय में सामूहिक विलोपन हो रहा हैं उसका मुख्य कारण मानव की गतिविधियों को बताया जा रहा है।

January 26, 2022 - 19:04
January 28, 2022 - 13:37
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Wild species: वन्य जीवों एवं वनस्पतियों की प्रजातियों के बचाव में एक और नई पहल
वन्य जीवों एवं वनस्पतियों की प्रजातियों का बचाव- फ़ोटो: gettyimages

वर्तमान में एक शब्द बहुत सुर्खियों में बना हुआ है ‘Sixth Mass Extinction'  जिसका हिंदी में अर्थ है ‘छठा सामूहिक विलोपन'। इस शब्द पर बातचीत करना इसलिए जरुरी है क्योंकि इस पर पृथ्वी का भविष्य निर्भर करता है। धरती पर पाए जाने वाले जीव कब तक रहेंगे , कितने जीव एवं उनकी प्रजातियां कब तक लुप्त हो जाएंगी,  वन्य जीवन जंगलों से कब तक खत्म हो जाएगा, समुंद्र से मछलियां कब तक समाप्त हो जाएँगी, पेड़–पौधों से फुल पत्तियां कब तक विलुप्त हो जाएंगी या क्या अचानक से धरती गर्म हो जाएगी एवं ठंडी हो जाएगी। क्योंकि UNO ( United Nations Organization )  की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2021 में हुई वर्षा अब तक की सबसे गर्म वर्षा के रूप में दर्ज की गई है। अलबत्ता पृथ्वी के अस्तित्व में आने के बाद अलग-अलग  समय पर कई ख़ास कारणों से विभिन्न प्रजातियों का एक बहुत बड़े पैमाने पर खात्मा होता आया है।

Sixth Mass Extinction  को Anthropocene Extinction  भी कहा जा रहा है, जिसका हिंदी में अर्थ है वन्य-जीवों, वनस्पतियों का जो वर्तमान समय में सामूहिक विलोपन हो रहा हैं उसका मुख्य कारण मानव की गतिविधियों को बताया जा रहा है। यदि इसे दूसरे पक्ष से समझा जाए तो मानव दख़लअंदाज़ी के चलते छठवें सामूहिक विलोपन को बढ़ावा मिलेगा। दरअसल ऐसा इसलिए होगा, क्योंकि बहुत गंभीर पर्यावरण संबंधित आपदाएं स्थाई रूप से प्रकृति के हवाले हो जाएंगी, जिसके कारण अक्सर भूंकप, ज्वालामुखी का फटना, सुनामी या अन्य प्राकृतिक आपदाएं देखने को मिलेंगी। यह भी हो सकता है कि कोई क्षुद्रग्रह या उल्कापिंड का टुकड़ा टूटकर धरती पर गिर जाए, जिससे पृथ्वी की विभिन्न प्रजातियों का  समापन हो जाए।

School of Ocean and Earth Science and Technology ( SOEST ) के बायोलॉजिक रिव्यू जर्नल में इससे सम्बंधित अध्ययन प्रकाशित हुआ है। इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने लिखा है कि धरती से करीब 13 फीसदी अकशेरुकी प्रजातियों के जीव पिछले 500 सालों में समाप्त हो चुके हैं। इसके अलावा वैज्ञानिकों ने सावधान भी किया है कि अगर यही चलता रहा तो जल्द ही जैव विविधता पर भयानक संकट आ सकता है और बहुत अधिक मात्रा मे इनकी गिरावट भी दर्ज की जाएगी। जिन 13 फीसदी जीवों की बात की जा रही हैं उनके विषय में अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) की रेड लिस्ट में शामिल हैं जिन जीवों की प्रजातियां खतरें में हैं। इस अध्ययन में बताया गया था कि धरती पर पाए जाने वाले घोंघे की 7 फीसदी आबादी तो 1500 साल पहले ही खत्म हो चुकी है। यदि देखा जाए तो यह ज़मीन पर रहने वाले अकशेरुकीय प्रजाति का जीव है, परन्तु समुंद्र में इसकी दर भी अधिक हैं। यह भी बता दें कि ज़मीन एवं समुंद्र मिलाकर देखा जाए तो इस प्रजाति के 75 से 13 फीसदी जीव खत्म हो चुके हैं यानी करीब 20 लाख वो मोलस्क, जिनके बार में वैज्ञानिकों को पता था।

रिपोर्ट के मुताबिक छठवें सामूहिक विलोपन से पहले पाँच सामूहिक विलोपन हो चुके हैं जिसके प्रमुख कारण- ज्वालामुखी का फटना, महासागरों में ऑक्सीजन का नुकसान एवं उल्का पिंडों का पृथ्वी से टकराना आदि हैं।

अब चर्चा करते है उन पाँच विलोपन की , जिसमें सामुहिक रूप से प्रजातियों का समापन हुआ था :

  • पहला विलोपन 444 मिलियन वर्ष पूर्व ऑर्डोविशियन युग में हुआ था जिसमें 86% प्रजातियों का समापन हुआ था।
  • दूसरी विलोपन की घटना देवोनियन युग में हुई थी जो 383 से 359 मिलियन वर्ष पूर्व घटी थी जिसमें 75% प्रजातियों का अंत हुआ था ।
  • तीसरा विलोपन पर्मियन युग में हुआ था जो 253 मिलियन वर्ष पूर्व हुआ था जिसमें लगभग 96% प्रजातियों का सफाया हो गया था।
  • चौथी विलोपन की घटना त्रैमासिक युग में घटित हुई थी जो 201 मिलियन वर्ष पूर्व घटी थी जिसमें 80% प्रजातियां नष्ट हो गई थी।

इसके अलावा छठवें सामूहिक विलोपन या विलुप्ति की शुरूआत वर्तमान युग में हो चुकी है जिसमें उल्का पिंडों के धरती से टकराने, ज्वालामुखी जैसी गतिविधियों या जलवायु परिवर्तन के चलते अनुमान लगाया जा रहा है। इन कारणों से एक बहुत बड़े पैमाने पर प्रजातियों का विलोपन हो सकने की संभावना है।

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