उत्तराखण्ड विधानसभा चुनाव में चिपको आंदोलन बना एजेंडा, जानिए क्या था चिपको आंदोलन

चिपको आंदोलन साल 1974 में शुरू हुआ था। यह आंदोलन अहिंसक आंदोलन की थीम पर आधारित था जो वर्तमान उत्तराखंड के चमोली जिले में हुआ था। इसके साथ ही यह आंदोलन उत्तर भारत के अन्य राज्यों में भी व्यापक रूप से फैल चुका था। इस आंदोलन का उद्देश्य पेड़ों की कटाई को रोकना, उनका संरक्षण करना तथा पारिस्थितिक संतुलन को कायम रखना था।

January 30, 2022 - 19:47
January 31, 2022 - 05:31
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उत्तराखण्ड विधानसभा चुनाव में चिपको आंदोलन बना एजेंडा, जानिए क्या था चिपको आंदोलन
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भारत की आजादी से लेकर आम अधिकारों तक भारत का इतिहास इतने आंदोलनों से भरा हुआ है जिनकी चर्चा आज तक की जाती है। लेकिन आज से लगभग 48 साल पहले एक ऐसा आंदोलन हुआ जिसमें ना तो किसी भी प्रकार की हिंसा हुई, न ही किसी भी रूप में दंगे हुए, यह आंदोलन था चिपको आंदोलन। यह आंदोलन पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से किया गया था, यानी इस आंदोलन का एकमात्र मकसद था पर्यावरण की रक्षा। इस आंदोलन में लोग जंगल की कटाई पर रोक लगाने के लिए पेड़ों को गले लगा लेते थे इसी कारणवश इस आंदोलन का नाम चिपको आंदोलन पड़ा।

वर्तमान में यह आंदोलन इसलिए प्रमुख बन गया है क्योंकि उत्तराखंड में होने वाले हर एक चुनाव में राजनीतिक पार्टियां उत्तराखंड के पर्यावरण एवं जल संरक्षण को लेकर एक मुद्दा बना लेती हैं, जिसे वे अपने घोषणापत्र में शामिल करती हैं। साथ ही इस मुद्दे को एक सियासी एजेंडा बनाकर उत्तराखंड की जनता के सामने भी रखती हैं ताकि वे अपना अच्छा खासा वोटबैंक बना सकें। इस साल के विधानसभा चुनाव 2022 में  भी सभी राजनीतिक पार्टियों ने उत्तराखंड को ध्यान में रखकर इसी मु्द्दे को एक बार फिर अपने-अपने चुनाव का विषय बना लिया है। साल 1974 में शुरू हुए  इस आंदोलन में सबसे अहम भूमिका उत्तराखंड के रैंणी गाँव की रहने वाली गौरा देवी एवम सुन्दर लाल बहुगुणा ने निभाई थी।

 क्या था चिपको आंदोलन

चिपको आंदोलन साल 1974 में शुरू हुआ था। यह आंदोलन अहिंसक आंदोलन की थीम पर आधारित था जो वर्तमान उत्तराखंड के चमोली जिले में हुआ था। इसके साथ ही यह आंदोलन उत्तर भारत के अन्य राज्यों में भी व्यापक रूप से फैल चुका था। इस आंदोलन का उद्देश्य पेड़ों की कटाई को रोकना, उनका संरक्षण करना तथा पारिस्थितिक संतुलन को कायम रखना था। वनों की रक्षा को ध्यान में रखकर इस आंदोलन में महिलाओं की सामूहिक रूप से अहम भूमिका रही थी जिसे आज भी याद किया जाता है। यानी इसे हम महिला आंदोलन भी कह सकते हैं, जिसमें गौरा देवी के साथ-साथ कई ग्रामीण महिलाओं ने अपनी भागीदारी दी थी। इस आंदोलन में स्थानीय लोग पेड़ों की कटाई को रोकने के लिए पेड़ों को गले लगा लेते थे या पेड़ों को घेर लेते थे इसलिए इस आंदोलन को चिपको आंदोलन का नाम दिया गया।

क्या था चिपको आंदोलन का मुख्य कारण ?

इस आन्दोलन में वनों की कटाई को मुख्य कारण बताया जा रहा था क्योंकि साल 1963 में भारत -चीन सीमा  संघर्ष के बाद देश को ढांचागत विकास देने में विदेशी लॉगिंग कंपनियों की रूचि बढ़ने लगी थी। ये कंपनियां वर्तमान उत्तराखण्ड राज्य के बड़े पैमाने वाले वन संसाधनों पर नजर बनाए हुए थी। जबकि जंगल स्थानीय लोगों के लिए आजीविका का एकमात्र सहारा था। भोजन से लेकर ईंधन तक के लिए इन्हें जंगलों पर निर्भर रहना पड़ता था।

इसके बाद साल 1970 में एक भयानक बाढ़ के चलते इस क्षेत्र में पानी भर गया था। इस बाढ़ का मुख्य कारण वाणिज्यिक लॉगिंग को बताया जा रहा था जिसका जिम्मेदार क्षेत्र के प्रबंधन को ठहराया गया। दूसरी ओर स्थानीय लोगों की नाराज़गी देखने को भी मिल रही थी, जो पूरी तरह से सरकार की गलत नीतियों के प्रति थी। जिसमें स्थानीय किसानों या चरवाहों को ईंधन की लकड़ी, चारे या अन्य कामों के लिए पेड़ों को काटने की बिल्कुल इजाज़त नहीं थी। जबकि दूसरी ओर खेल निर्माण कंपनी को पेड़ों की कटाई करने, उनसे बनने वाले उपकरणों को बनाने की पूरी अनुमति दी गई थी। इस घटना से स्थानीय लोग पूरी तरह अपनी नाराज़गी व्यक्त कर रहे थे,, जो चिपको आंदोलन के रूप में सरकार के सामने आया। इस आन्दोलन ने सरकार पर बहुत गहरा असर डाला था जिसके चलते सत्तासीन सरकार को कंपनी का लॉगिंग परमिट जल्द ही रद्द करना पड़ा।

चिपको आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले लोग

मुख्य रूप से चिपको आंदोलन में दो लोगों की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। जिनमें एक थी उत्तराखंड के रैंणी गाँव की रहने वाली गौरा देवी और दूसरे थे सुन्दर लाल बहुगुणा। बहुगुणा ने अपना पूरा जीवन जंगलों एवम हिमालय के पहाड़ों के विनाश के विरोध में स्थानीय लोगों को समझाने और उन्हें शिक्षित करने में बिता दिया था।

यह भी बता दें कि बहुगुणा के इन्हीं प्रयासों ने चिपको आंदोलन को एक बहुत बड़ी सफलता दिलाई थी। इस आंदोलन के चलते बहुगुणा ने देश की तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी को इतना विवश कर दिया कि उन्हें पेड़ों की कटाई पर प्रतिबंध लगाना पड़ा। इनके अलावा पर्यावरणविद सुंदर लाल पटवा ने भी इस आंदोलन को एक गति दी थी। इसके चलते उन्होंने इस आंदोलन में “पर्यावरण का संरक्षण ही अर्थव्यवस्था का आधार है“ का नारा भी दिया था।

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