DUSU ELECTION 2023: डूसू की चौधराहट खातिर कॉलेजों की खाक छान रहे भावी नेताजी
Delhi University Election: DUSU ELECTION: आने वाली 22 तारीख को डीयू के छात्र अपने नए प्रधान का चुनाव करेंगे और अध्यक्षों की नेम प्लेट पर अक्षित दहिया से आगे नामों की श्रंखला को आगे बढ़ाएंगे।
Delhi University Election: DUSU ELECTIONS : DU Updates
दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिला लेते समय पढ़ने का सुझाव भले ही न दिया जाता हो, मगर कॉलेज के फेस्ट और यूनिवर्सिटी के चुनाव का भरपूर लुत्फ उठाने की हिदायत सबसे पहले दी जाती है। कोविड महामारी के चलते डीयू में फेस्ट और चुनाव दोनो रुक गए थे। ऐसे में यूनिवर्सिटी के छात्रों के सामने अजीब उलझन थी, वो दूसरी यूनिवर्सिटी के अपने साथियों को यह समझा ही नही पा रहे थे कि "हमारे वाली अलग कैसे है"। खैर अब इस दुविधा का पटाक्षेप तीन साल बाद ही सही, मगर हो गया है। आने वाली 22 तारीख को डीयू के छात्र अपने नए प्रधान का चुनाव करेंगे और अध्यक्षों की नेम प्लेट पर अक्षित दहिया से आगे नामों की श्रंखला चालू करेंगे।
मुकाबले में एबीवीपी- एनएसयूआई
डीयू में हर बार की तरह इस बार भी मुख्य मुकाबला संघ समर्थित एबीवीपी और कांग्रेस समर्थित एनएसयूआई के बीच ही माना जा रहा है। एबीवीपी की अगुआई बुद्धिस्ट स्टडीज के छात्र तुषार ढेढा, जबकि एनएसयूआई का नेतृत्व लॉ के विद्यार्थी हितेश गुलिया कर रहे हैं। तुषार ने पिछले कई सालों से छात्रों के बीच रहकर अपने आप को "एबीवीपी के एक साधारण कार्यकर्ता" के रूप में मजबूत छवि बनाई है, वहीं हितेश को भी दीपेंद्र हुड्डा और जयंत चौधरी जैसे कद्दावर नेताओं का समर्थन मिलने के बाद एक मजबूत उम्मीदवार के रूप में देखा जा रहा है। कहते हैं कि राजनीति में नैरेटिव भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, अब क्योंकि पिछले 10 सालों में अध्यक्ष के चुनाव पर 7 बार एबीवीपी ने जीत दर्ज की है, ऐसे में तुषार मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी हितेश से एक कदम आगे हैं।
मुद्दे और तरकीब वही, सिर्फ चहरे और नाम बदले
मेट्रो पास, हर कॉलेज में होस्टल, छात्राओं की सुरक्षा, प्लेसमेंट सेल- ये वो मुद्दे हैं जो पिछले कई सालों से डीयू के चुनावों में छाए रहते हैं। तमाम प्रयासों के बावजूद छात्र नेता इन समस्याओं का स्थाई हल ढूंढने में नाकाम साबित हुए हैं।
इसके इतर उम्मीदवारों का प्रचार करने का तरीका भी आम छात्रों के बीच कोतूहल का विषय बना हुआ है। तुषार के पीछे समर्थकों की भीड़ और हर्षित के पीछे गाड़ियों के काफिले के बीच असली चुनावी मुद्दे कहीं गायब से लगते हैं। ऐसा लगता है कि चुनाव मुद्दों और पक्षों का नही, बल्कि किसके पीछे गांव देहात का कितना समर्थन है यह तय करने का है।
डीयू के प्रधान का ताज किसके सर सजेगा यह तो वक़्त की परतों में सिमटा है| फिलहाल तो डीयू के आम छात्रों को यह तय करना है कि वे डीयू की राजनीति को नेताओं की राजनीति से बच्चों की राजनीति बनाने का प्रयास कब शुरू करेंगे|