Women Representation Bill : संसद और सांसदों को आईना दिखाता रहेगा महिला आरक्षण बिल
Women Representation: उम्मीद है कि लंबे इंतज़ार की घड़ियां अब जल्द समाप्त होंगी और देश की संसद का एक-तिहाई या उससे ज्यादा हिस्सा महिलाओं के नाम होगा|
उम्मीद है कि लंबे इंतज़ार की घड़ियां अब जल्द समाप्त होंगी और देश की संसद का एक-तिहाई या उससे ज्यादा हिस्सा महिलाओं के नाम होगा। ऐसी खबरें है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार संसद के इस विशेष सत्र में महिला आरक्षण बिल पेश करने वाली है। इसको लेकर लोगों के मन में काफी जिज्ञासाएं हैं। क्या इसका प्रारूप पिछले वाला ही होगा या यह किसी अन्य रूप में आएगा? इन सब सवालों के जवाब तो फिलहाल वक़्त की परतों में सिमटे हैं और आज या कल में मिल ही जाएंगे।
जानिए इतिहास
राजनीति में महिलाओं का हिस्सा सुनिश्चित करने का सबसे पहला प्रयास राजीव गांधी ने किया था, जो विफल रहा। 3 साल बाद 1992 में नरसिंहा राव ने उसे अंजाम तक पहुंचाया और पंचायती राज संस्थाओं में एक-तिहाई सीटें महिलाओं के नाम आरक्षित की। उसके बाद 1996 में देवेगौड़ा ने, 1998, 99, 2002, 03 में वाजपई ने और 2008 में मनमोहन ने संसद में महिलाओं को आरक्षण देने का प्रयास किया, मगर इन सभी का प्रयास औंधे मुंह गिरा।
क्या हैं कारण ?
हम को मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन
दिल के खुश रखने को गालिब ये ख्याल अच्छा है। इन पंक्तियों के कटाक्ष को आधार बनाकर चलें तो जो सबसे प्रमुख कारण के तौर पर प्रस्तुत किया गया वह था महिलाओं का जातियों के आधार पर विभाजन। सपा और राजद जैसी पार्टियों का तर्क था कि अगडी जाति की महिलाएं इसका सारा फायदा उठा ले जाएंगी। वो ये नही समझा पाए कि उनकी पार्टी में पिछड़ी महिलाओं को संसद में अगडा करने से किसने रोका है। जिन्होंने "लड़के हैं, लड़कों से गलती हो जाती है" जैसी बातें करते समय भी महिलाओं को एक नजर से देखा हो, उन्हे एक दम से महिलाओं में जातियां नजर आने लगी।
कोई एक व्यक्ति आकर ये बता दे कि जाट, राजपूत, यादव, ब्राह्मण, गुर्जर कौन-सी ऐसी जाति है जिसमें महिलाओं को उनका उचित स्थान मिल पाया? जब हरियाणा के मुख्यमंत्री को 'हमारे गांव की चौपाल पर महिलाएं नही चढ़ेंगी' बोल कर टोक दिया जाता हो, तब ऐसी कौन-सी जाति का आदमी था जो उस पेड़ की चौपाल के नीचे नही बैठा था? विरोध का कारण महिलाओं की जाति नही है, ईगो है। जब भरी संसद में कोई दुप्पटे वाली किसी मूछ वाले को टोकेगी, तो ईगो को चोट तो पहुंचेगी और बस यही डर है।
सशक्तीकरण की राह
किसी भी कानून की ऐसी तैसी करना हमारी पार्टियां बखूबी जानती हैं। अगर अपने पैरों पर खड़ी रहने वाली महिलाओं की जगह, माननीयों की पत्नियों और बहुओं को ही चुनाव लड़ाया गया, तो यह स्थिति नहीं बदल पाएगी। इस पर संसद के भरोसे नही बैठा जा सकता। यह जनता को सोचना होगा कि हम अपनी बेटियों और बहनों को कहां देखना चाहते हैं, तभी शायद अपेक्षित बदलाव आ पाएं।
महिला आरक्षण बिल की यह संघर्ष कहानी आने वाले लंबे समय तक संसद और माननीय सांसदों को आईना दिखाती रहेगी कि आज भी महिलाओं को अपने मुद्दे हल करवाने के लिए कितना इंतज़ार करना पड़ता है।