तालिबान राज में भारत की चाबहार से चाह

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के अवैध रूप से सत्ता पर कब्जा करने के बाद भारत के लिए अफ़ग़ानिस्तान में सीधे प्रवेश की बातें फिलहाल मृगतृष्णा के समान हो गई हैं। अफ़ग़ानिस्तान में भारत की अनगिनत छोटी-बड़ी परियोजनाओं के भविष्य पर व्यापक प्रश्नचिह्न उठ खड़ा हुआ है।

September 1, 2021 - 10:00
December 9, 2021 - 10:38
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तालिबान राज में भारत की चाबहार से चाह

चाबहार ईरान का एकमात्र गहरे सागर का बंदरगाह है,जो ओमान की खाड़ी में ईरान के दक्षिण सिस्तान बलूचिस्तान प्रान्त में अवस्थित है। इसके जरिये मध्य एशिया के देशों को उत्तर दक्षिण कनेक्टिविटी के माध्यम से अरब सागर तक पहुंच और भारत सहित अन्य मध्यपूर्व/ पश्चिम एशिया के देशों को इस बंदरगाह का उपयोग करते हुए पूरे रूस और यूरेशिया तक सीधी पहुँच सम्भव हो सकेगी।

भारत ईरान में सामरिक आर्थिक हित वाले इस बेहद महत्वपूर्ण परियोजना के जरिए चीन के हिन्द महासागर और फारस की खाड़ी में बढ़ते दबदबे को प्रति संतुलित और पूरे क्षेत्र की भू:रणनीतिक परिदृश्य को व्यवस्थित कर सकेगा।

चाबहार बंदरगाह को विकसित करने की परियोजना कोई नई पहल नहीं है। यह सबसे पहले 1973 में आधुनिक ईरान के निर्माता और ईरान के अंतिम शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी की दिमागी उपज थी।

इस गहरे बंदरगाह की जरूरत को 1980 के आठ वर्षीय युद्ध के दौरान महसूस किया गया क्योंकि हॉरमुज़ जलडमरूमध्य पर ईरान की निर्भरता अत्यधिक बढ़ गयी और हॉरमुज़ बन्दरगाह पर अत्यधिक दबाव देखने को मिला। इस घटना के बाद से ही इसे विकसित करने के कार्य को प्राथमिकता दी गई। यह परियोजना और इसके विभिन्न चरण समय-समय पर अमेरिकी प्रतिबंधों की मार झेलते रहे और परियोजनागत देरी होती रही। इसकी स्थिति में सुधार 2015 से होना शुरु हुआ जब अमेरिकी जॉइंट कॉम्प्रीहेंसिव प्लान ऑफ एक्शन(जेसीपीओए) के प्रावधानों के बाद इसके निर्माण में तेजी आई।

भारत द्वारा विकसित किए जा रहे इस बंदरगाह में दो भाग हैं शाहिद कलांतरी और शाहिद बेहेश्ती। जिसमे प्रत्येक में पांच-पांच बर्थ है यानि इस बंदरगाह में माल लदान और ढुलाई के लिए समर्पित कुल दस बर्थ है। भारत की तरफ से  "इंडिया पोर्ट ग्लोबल" (जवाहरलाल नेहरू पोर्ट ट्रस्ट और कांडला पोर्ट ट्रस्ट) और ईरान के "अरिया बनादेर" द्वारा इन बर्थ का संयुक्त रूप से निर्माण किया जा रहा है। इसमें 600 मीटर लम्बा कार्गो टर्मिनल और 640 मीटर कंटेनर टर्मिनल का भी निर्माण भी शामिल है।भारत चाबहार बन्दरगाह क्षेत्र के विकास के लिए $500 मिलियन और $225 मिलियन इसके विस्तार के लिये प्रतिबद्ध है। इसके अतिरिक्त भारत, भारतीय रेल की अनुषांगिक और सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनी इरकॉन द्वारा 500 किलोमीटर लंबी चाबाहार -जाहेदान रेल मार्ग बिछाने के लिए भी प्रतिबद्ध है,जिसका विस्तार अफ़ग़ानिस्तान के जारांज तक होगा।

यहां भारतीय सीमा सड़क संगठन ने जारांज - डेलराम राजमार्ग का निमार्ण पहले से ही कर रखा है। जिससे चाबहार बन्दरगाह डेलाराम - जरांज़ राजमार्ग,के जरिये जिसे ''रूट 606 या "ए 71" कहा जाता है,अफगान मुख्य भूमि से सीधा जुड़ जाएगा। यह राजमार्ग ईरान अफगानिस्तान के सीमावर्ती शहर डेलराम को निमरुज प्रान्त के जरांज़ को चाबहार बन्दरगाह से सीधे जोड़ती है। लगभग 200 किलोमीटर लम्बी और 600 करोड़ रुपये वाली इस राजमार्ग परियोजना को भारत ने पूर्ण वित्तीयन किया है। भारतीय सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) ने 2005 में इस परियोजना का निर्माण शुुरु किया और 2009 में इसे अफगानी नागरिकों के उपयोग के लिए समर्पित कर दिया था। 

वर्तमान में चाबहार बन्दरगाह की कुल क्षमता 8.5 मिलियन टन प्रतिवर्ष है जो 2030 तक 86 मिलियन होने की उम्मीद है। बदलते भू:रणनीतिक ,सामरिक पृष्ठभूमि तथा भारत,अफगानिस्तान और ईरान के द्विपक्षीय संबंधों के लिहाज से चाबहार परियोजना का अत्यधिक संभारिक,सामरिक और रणनीतिक महत्व है। जहां एक तरफ भूआबद्ध अफगानिस्तान को अरब सागर तक सीधी पहुंच मिलेगी और उसे भारत व्यापार के लिये पाकिस्तान पर उसकी निर्भरता लगभग समाप्त हो जाएगी। ईरान के लिए चाबाहार परियोजना न सिर्फ उसके सामरिक और आर्थिक हितों को जबरदस्त पूर्ति करती है बल्कि इससे ईरान के भारी कार्गो हैंडलिंग के लिए संयुक्त अरब अमीरात पर निर्भरता का अंत हो जायेगा और भारत की अफगानिस्तान के लिए सीधी पहुंच सुनिश्चित हो सकेगी और हमें पाकिस्तान की तरफ मुंह नहीं ताकना पड़ेगा।

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के अवैध रूप से सत्ता पर कब्जा करने के बाद भारत के लिए अफ़ग़ानिस्तान में सीधे प्रवेश की बातें फिलहाल मृगतृष्णा के समान हो गई हैं। अफ़ग़ानिस्तान में भारत की अनगिनत छोटी- बड़ी परियोजनाओं के भविष्य पर व्यापक प्रश्नचिह्न उठ खड़ा हुआ है। भारत ईरान और अफ़ग़ानिस्तान के लिए सामरिक रूप से महत्वपूर्ण इस परियोजना में अब अफ़ग़ानिस्तान की क्या भूमिका रहेगी ? इस प्रश्न का उत्तर भी अब काल के गर्भ में हैं।

दूसरी तरफ चीन का तालिबान संग अलग दर्जे का प्रेम और बंधुत्व वाली सामने आ रही तस्वीर,

बीजिंग-रावलपिंडी- कंधार के बीच पक रही अलग किस्म की बिरयानी की बू के बीच तेहरान के साथ बीजिंग की गलबहियां किसी दृष्टिकोण से भारत के लिए अच्छे संकेत नहीं दे रहे हैं

चाबाहार परियोजना में भारत का हित

1.भारत की आर्थिक, व्यावसायिक,ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करने के अतिरिक्त जो सबसे महत्वपूर्ण कारक है वह है "हॉरमुज दुविधा" की काट ढूंढना ।

2.भारत चाबाहार बन्दरगाह के आसपास पूर्ण वाणिज्यिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण नौ मुक्त व्यापार औद्योगिक क्षेत्र (एफटीजेड) का निर्माण करेगा जो भारत,ईरान तथा अफ़ग़ानिस्तान में अवस्थित है,ये हैं जाहेदान,जरांज,चाबहार,डेलराम, कंधार,काबुल,मुम्बई और कांडला। अफ़ग़ानिस्तान में भारत की सीधी पहुंच न हो सके,इसके लिए पाकिस्तान, अतीत में भारत को अपनी भूमि और वायु सीमा पर प्रवेश वर्जित करता रहा है,इस स्थिति में यह मुक्त व्यापार औद्योगिक क्षेत्र अफ़ग़ानिस्तान में भारत के लिये प्रवेशद्वार बन जाते हैं।

3.भारत रूस और ईरान का संयुक्त रूप से समर्थित और बेहद महत्वाकांक्षी परियोजना अंतर्राष्ट्रीय उत्तर दक्षिण ट्रांसपोर्ट गलियारा (आईएनएसटीसी) जिसके जरिये भारत और यूरोप के बीच एक वैकल्पिक मार्ग उपलब्ध हो सकेगा और इनके बीच की मौजूदा दूरी जो अभी 40 दिनों की है वह चाबहार के जरिये घट कर महज 20 दिनों की हो जाएगी ।इस परियोजना को वर्ष 2000 में सैद्धांतिक रूप से अमली जामा पहनाया गया था,इसके सफलतापूर्वक क्रियान्वयन के लिए भी चाबहार की अवस्थिति बेहद अहम है

4.आईएनएसटीसी परियोजना भारत के निर्बाध ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए भी बेहद महत्वपूर्ण परियोजना है क्योंकि इसके जरिये भारत की सीधी पहुंच रूस के साथ साथ ऊर्जा सम्पन्न केंद्रीय/मध्य एशियाई देशों के साथ होगी।

5.भारत चाबाहार परियोजना के जरिए चीन पाकिस्तान के कुत्सित मंसूबो वाली ग्वादर परियोजना के सामरिक महत्व को कम अथवा न्यून करने के साथ साथ, उसके भू:रणनीतिक महत्व को प्रतिसन्तुलित कर सकेगा।

स्ट्रेट ऑफ हॉरमुज में चीनी कुटिल चाल का विस्तार।

चीन जिस तरह से हिन्द महासागर क्षेत्र में अपनी "ऋण ग्रस्तता की जाल वाली डिप्लोमेसी"/चेकबुक डिप्लोमेसी के जरिये इन देशों को आधुनिक हथियारों, पनडुब्बियों से सुसज्जित करके,और अन्य सामरिक,आर्थिक कारकों के जरिये इन देशों में अपनी गहरी पैठ बना रहा है वह निश्चित रूप से भारत के लिए बेहद चिंताजनक है।

इसी कड़ी में हम चीन की "स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स "को देख सकते हैं।

अमेरिका की कंसल्टेंसी संस्थान बूज़ एलन हैमिल्टन ने अपनी रिपोर्ट "एनर्जी फ्यूचर ऑफ एशिया (2004)"में सबसे पहले "स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स"शब्द का प्रयोग किया और चीन की अतिमहत्वाकांक्षी परियोजना को दुनिया के सामने रखा।

चीन इस परियोजना के तहत अपने पूरे "रणनीतिक सप्लाय चेन नेटवर्क" को मजबूत कर रहा है जो इसकी भावी ऊर्जा सुरक्षा को प्रभावी रूप से सुनिश्चित करने और पूरे हिन्द प्रशांत क्षेत्र में अपनी पहुंच के लिए बेहद अहम परियोजना है।

इसके तहत चीन अपनी "बेल्ट एन्ड रोड इनिशिएटिव" के तहत सामरिक महत्व के नौसैनिक अड्डे का निर्माण,द्वीपीय देशों के दंतुरित तटीय शहरों में भारी ढांचागत निर्माण कार्य मे व्यापक निवेश जारी रखे हुआ है।

हिन्द-प्रशान्त क्षेत्र में अपने दबदबे को बढ़ाते हुए चीन ने अपने मेरीटाइम डॉक्ट्रिन के तहत मुख्यतः सामरिक महत्व और उसके "सी लाइन ऑफ कम्युनिकेशन (एसएलओसी)"वाले तटीय देशों में वर्ष 2049 तक अपने "ग्रेट चाइनीज ड्रीम" को पूरा करने के लिए "वन बेल्ट वन रोड","बेल्ट एण्ड रोड इनिशिएटिव'' और 'मेरीटाइम सिल्क रूट" के जरिये एशिया,अफ्रीका और यूरोपीय देशों के बंदरगाहों के विकास,विस्तार और पुनर्निर्माण के कार्यों में गहरी रुचि ले रहा है। 

इसके तहत हम इसे हॉर्न ऑफ अफ्रीका के जिबूती से लेकर अरब सागर में ग्वादर(पाकिस्तान),हंबनटोटा(श्रीलंका) मराओ(मालदीव) बंगाल की खाड़ी में कोको (म्यांमार),चटगाँव,सोनादिया और पायरा बन्दरगाह,(बांग्लादेश) के अतिरिक्त तंजानिया के बंदरगाह,और हिन्द प्रशान्त क्षेत्र के बाहर ग्रीस(यूनान)के पिराएस बंदरगाह के निर्माण को आप ताक पर नहीं रख सकते है।

मूलतःग्वादर बंदरगाह परियोजना चीन की हिन्द महासागर में व्यापक पहुंच वाली भू रणनीतिक योजना है जिससे वह फारस की खाड़ी तक अपना दूसरा वैकल्पिक मार्ग तलाश करते हुए "मलक्का दुविधा" की काट को ढूंढ सके।

मौजूदा दौर में चीन को खाड़ी देशों से अपनी निर्बाध ऊर्जा आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए 14,500 किलोमीटर की लंबी दूरी मलक्का जलडमरूमध्य के बीच से तय करनी पड़ती है,वहीं ग्वादर के जरिये यह दूरी घटकर महज 2500 किलोमीटर रह जाती है और मलक्का जलसन्धि को पार करने की कोई जरूरत नहीं पड़ती है।

मलक्का जलडमरूमध्य के आसपास स्वतंत्रता पूर्वक और उन्मुक्त नौवहन के लिये हिन्द प्रशांत देशों की नौसेना की पूरे लाव लश्कर के साथ सक्रिय तैनाती,गश्ती और लगातार होते नौसैनिक अभ्यास के बीच चीन को अक्सर यह प्रतीत होता रहता है कि मलक्का जलडमरूमध्य अगर किसी वजह से "चोक पॉइंट"बन गया तो फिर क्या होगा?

प्रशांत महासागर क्षेत्र में इंडोनेशिया,मलेशिया और सिंगापुर को जाने वाला मलक्का जलडमरूमध्य, और ओमान की खाड़ी व मध्य पूर्व में अरब सागर को जाने वाला हॉर्मुज़ जलडमरूमध्य के मौजूदा हालात में सामरिक तनाव के फ़्लैश पॉइंट बनने जा रहे हैं,जिसकी बानगी हिन्द प्रशांत क्षेत्र में दिखने भी लगी है।

मलक्का जलडमरूमध्य और होर्मुज़ जलडमरूमध्य दोनों ही एशिया में बन रहे नए हालात के केंद्र के इस क्षेत्र में अमेरिका के नए राजनीतिक और सामरिक हित, चीन पर सिर्फ रणनीतिक ही नहीं सामरिक लगाम लगाने वाले भी होंगे। दक्षिण पूर्व एशिया में, आसियान समूह देशों ने बीजिंग और पेंटागन के बीच खेले जा रहे संभावित शीत युद्ध 2.0 के समानांतर एक गुट-निरपेक्ष 2.0 की वक़ालत करके इन दोनो महाशक्तियों के झमेले से खुद को किनारे रखना चाहते हैं।

 ईरान का महत्व,चीन की घुसपैठ

तालिबान के अफगानिस्तान पर कब्जा जमाने के बाद चीन इस क्षेत्र में अति सक्रिय हो गया है,अफ़ग़ानिस्तान में उसे अपना व्यापक भू सामरिक भविष्य के साथ साथ बाखान गलियारा सबसे प्यारा लगने लगा है और पाकिस्तान को प्रतिसन्तुलित करने का यह उसे सबसे बेहतरीन अवसर नजर आने लगा है।

चीन भौगोलिक रूप से मध्य,पश्चिम एवं दक्षिण एशिया के तिराहे मुहाने पर अवस्थित ईरान की मौजूदगी के व्यापक महत्व को भली भांति समझता है। इसके अतिरिक्त चीन पश्चिम एशिया के क्षेत्रगत मामलों में ईरान का दबदबा,उसका घोर अमेरिका विरोधी रवैया,बेहद मज़बूत सत्ता तंत्र, प्रचुर प्राकृतिक संसाधन के साथ साथ अधोसंरचना एवं अवसंरचना को तेजी से विकसित करने की जबरदस्त भूख। ईरान में विदेशी पूंजीगत प्रवाह व आधुनिक प्रौद्योगिकी की सख़्त ज़रूरत को चीन बेहद संजदीगी के साथ समझता है। चीन की लालसा है कि पूरी तरह अस्थिर अफगानिस्तान के तालिबान को अपने भरोसे में लेते हुए वह अपने चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव यानी बीआरआई के तहत तेजी से निर्माणाधीन "चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा " (सीपीईसी) का विस्तार अफगानिस्तान से ईरान तक कर सके। चीन, ईरान के ऊर्जा और उसके सहायक क्षेत्र और अधोसंरचना एवं अवसंरचनागत क्षेत्र से जुड़े क्षेत्रों में व्यापक निवेश करने के लिए अति उत्सुक है। इसके लिए चीन अंतराष्ट्रीय उत्तर दक्षिण ट्रांसपोर्टेशन गलियारा के तहत चाबहार बंदरगाह से मशहद तक रेलवे लाइन बिछाना चाहता है और ईरान के अन्य बुनियादी ढाँचे से जुड़ी परियोजनाओं के लिए अपने कोष को लगभग पूरी तरह खोल दिया है।

हाल ही में ईरान ने चाबहार से जाहेदान के बीच 628 किलोमीटर रेल मार्ग परियोजना से भारत पर "असक्रिय सहयोग"का आरोप लगाते हुए इससे अलग कर दिया है। दोनो देशों के बीच 2016 में इसके लिए आपसी सहमति बनी और समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर भी हुए थे। भारत को इससे अलग करने के बाद ईरान चीन के साथ मिलकर इस पूरे परियोजना की जिम्मेवारी संभालेगा।

हालिया चीन ईरान के 25 वर्षीय आर्थिक और सामरिक समझौते पर एक नजर डालें तो आने वाली स्थिति बेहद स्पष्ट हो जाती है। चीन को भारत की फारस की खाड़ी में मजबूत उपस्थिति रास नहीं आती है,जो चाबहार के जरिये सम्भव हुई है। इस कारण सामरिक रूप से ग्वादर का महत्व घट गया है,चीन ने इसकी काट को खोजते हुए ईरान से हॉरमुज जलडमरूमध्य के निकट अवस्थित "बन्दर ए जस्क"बन्दरगाह के प्रयोग की अनुमति हासिल करके एक भविष्योन्मुखी सामरिक बढ़त हासिल कर ली है और ईरान को आश्वस्त किया कि इस बन्दरगाह का निर्माण बेल्ट एन्ड रोड इनीशिएटिव के जरिये किया जाएगा

जैसे कि, वर्ष 2016 में चीन और ईरान के द्विपक्षीय व्यापार को अगले 10 वर्षों में $600अरब तक पहुंचने के आशान्वित लक्ष्य को निर्धारित किया गया था,लेकिन आंकड़े बताते हैं कि बीते वर्षो में इस दिशा में मामूली प्रगति हुई है। जहां वर्ष 2020 में चीन-ईरान के बीच द्विपक्षीय व्यापार $14.91अरब का था,जो इससे बीते साल की समान अवधि के $ 23.03 अरब की तुलना में 35.3 फीसद कम और बीते 15 सालों में सबसे कम था।

ईरान में भारत के लिए मौजूदा चीनी चुनौती।

अफगानिस्तान में तेजी से बदलते हालात,ईरान और अमेरिका के बीच कटु सम्बन्ध और ईरान में भारतीय परियोजना में चीन की बेजा रूप से व्यापक रुचि और हालिया चीन ईरान के बीच 25 वर्षीय सामरिक आर्थिक संधि के बीच स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती।  चीन द्वारा चाबाहार के विकास से जुड़ी अन्य परियोजनाओं में खुलकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराना और ईरान द्वारा उसका समर्थन करना।

इन परिस्थितियों में भारत के भू:सामरिक लक्ष्य तो निश्चित रूप से प्रभावित होंगे,चीन की मंशा स्पष्ट है कि वह चाबहार बन्दरगाह परियोजना में अपनी हिस्सेदारी निभाए जिससे वह भारत पर पूरी तरह नजर भी रख सके और बन्दरगाह के विकास में अपना योगदान भी दे सके। अगर चीन अपने इस कुत्सित मंसूबे में सफल हुआ तो चाबाहार की सामरिक स्थिति व्यापक रूप से प्रभावित होगी और चाबहार ग्वादर बन्दरगाह की स्थिति दो सगी बहनों की तरह हो जाएगी जो मात्र 72 किलोमीटर की दूरी पर रहती हैं।

मौजूदा परिस्थितियों में साउथ ब्लॉक को इस क्षेत्र में अपनी मौजूदा भू:सामरिक नीतियों पर पुनर्विचार करना पड़ेगा और यहां मौजूद कृत्रिम चीनी मांझे युक्त पतंग को अपने गले मे लिपटने से पहले ही मजबूत भारतीय रेशम से काटना होगा।

वैसे भी अंतरराष्ट्रीय राजनीति में बेहतर माहौल और समस्या के समाधान की उम्मीद को कभी नहीं छोड़ना चाहिए,यहां कहते भी हैं कि हर समस्या का समाधान उस समस्या में ही छिपा होता है।