स्वच्छ भारत: स्वच्छता में सुधार के लिए व्यवहार परिवर्तन की भूमिका अहम
येल यूनिवर्सिटी के ताज़ा सर्वे को मानें तो एक सौ अस्सी देशों में हिंदुस्तान का स्थान एक सौ अड़तालीस पर है। यह स्थान सिर्फ़ सरकारों के लिए नहीं अपितु एक नागरिक के तौर पर हमारे लिए भी शर्मनाक है।
साल था 1917 ,बापू हिंदुस्तान के स्वतंत्रता संग्राम को और प्रगाढ़ रूप देने के लिए हिंदुस्तान के अनेक जिलों और कस्बों में घुम रहे थे। जब बापू बिहार में स्थित चंपारण पहुँचे, तो उन्होंने पाया कि हिंदुस्तान में सफाई की कमी एक बहुत बड़ी समस्या है। चंपारण की एक आम सभा में बापू कहते हैं कि "राजनीतिक स्वतंत्रता से ज्यादा जरूरी स्वच्छता है।” यह हिंदुस्तान का वो समय था जब न शिक्षा थी और न इतने संसाधन। लेकिन, सवाल यह है कि आज लगभग एक सौ पाँच साल बाद भी, क्या हम अपने देश को स्वच्छता के मापदंड पर शीर्ष स्थान पर पहुँचा सके हैं?
अगर येल यूनिवर्सिटी के ताज़ा सर्वे को मानें तो एक सौ अस्सी देशों में हिंदुस्तान का स्थान एक सौ अड़तालीस पर है। यह स्थान सिर्फ़ सरकारों के लिए नहीं अपितु एक नागरिक के तौर पर हमारे लिए भी शर्मनाक है। मेरा मत है कि लोगों के जीवन तक यह बात पहुँचाने के लिए आयु अनुसार कुछ प्रयोग करने की आवश्यकता है। क्योंकि, व्यवहारिक परिवर्तन मानसिक परिवर्तन से होकर गुजरता है।
मेरा मानना है कि स्वच्छता में सुधार के लिए व्यवहार से पहले मानसिक परिवर्तन की ज़रूरत है। क्योंकि, जब तक मन रूपी संसार में स्वच्छता का प्रवेश नहीं होगा तब तक व्यवहार में परिवर्तन की उम्मीद नहीं की जा सकती है। यह मेरा मत इसलिए भी है क्योंकि मेरा मानना है कि हमारे कार्यों का निर्वाहन पहले मानसिक तौर पर होता है और फिर व्यवहारिक तौर पर।
वहीं, इसका परिणाम पाने के लिए यह जरूरी है कि बचपन से ही स्वच्छता की भावना का हृदय में समावेश हो। ऐसा माना भी जाता है कि जो कार्य हम बचपन से करते आते हैं , वो हमारे जीवन में समाहित हो जाते हैं और उसके उपरांत वे कार्य जीवन जीने का ढंग बन जाता है। ग़ौरतलब है कि जब हम शैश्व अवस्था में होते हैं तब हमें शिक्षा किताबों और अनेक प्रकारों से दी जाती है लेकिन जब सफाई की बात आती है - तब ना कोई किताबें हैं, ना ही किसी शिक्षक का ध्यान।
मेरा मत यह भी है कि कम से कम पहली पाँच कक्षाओ में एक विषय या एक घंटे शिक्षा और उसके महत्व पर बातें होनी चाहिए। यह इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि जब तक हम नई पीढ़ियों के मस्तिष्क तक स्वच्छता पहुँचाने में समर्थ नहीं होंगे, तब तक शायद हमारी हर क़वायद इस दिशा में विफल साबित होगी।
हमारा दूसरा कदम वयस्कों के लिए हो सकता है। हमें देशभर में कुछ अंतराल पर विभिन्न शैक्षणिक आयोजन करवाने चाहिए। इन आयोजनों में विभिन्न तरह की प्रतियोगिताएं कराना इस दिशा में एक अच्छी पहल मानी जा सकती है। इससे नौजवानों में प्रतिस्पर्धा की भावना को बल मिलेगा। परिणामस्वरूप इस माध्यम से हम हिंदुस्तान की एक बड़ी
आबादी को इस मुहिम से जोड़ सकते हैं।और, जब युवा शक्ति इसमें अपनी सहभागिता दिखाएगी, तो हिंदुस्तान के दूर प्रदेश तक इस आयोजन को पहुँचाया जा सकेगा। परंतु इस व्यवहारिक परिवर्तन की शुरुआत मानसिक चेतना से ही प्राप्त की जा सकेगी।
तीसरा और आख़िरी मार्ग है - जन चेतना। जब एक बड़ी आबादी को स्वच्छता का मूल मालूम नहीं हो, तब यह जरूरी है कि सरकारें और कुछ सामाजिक संगठन आगे आएं और समाज के हर हिस्से तक स्वच्छता की बात को पहुँचाने का प्रयत्न करें। इसका स्वरूप विराट हो यह ज़रूरी नहीं है अपितु, यह कितने लोगों के अवचेतन में निवास ग्रहण कर पाता है, यह
ज़रूरी है।
इस मुहिम के माध्यम से हमें एक ऐसी फ़ौज खड़ी करनी होगी जो छोटे और सुदूर गांवों में जाकर स्वच्छता के आयाम और ज़रूरत के बारे में लोगों को बता सके। बापू कहते थे "हमारे गाँव का विकास सबसे महत्वपूर्ण है।" चुंकि, आज भी हमारे देश का एक बड़ा समूह गांवों में निवास करता है, इसलिए यह ज़रूरी भी है, कि हमारे लक्ष्य में यह भी शामिल हो। यह संदेश जब किसी गाँव को आलिंगन कर लेगा, तब वह एक प्रदेश का रूप लेगा और एक दिन हमारा देश भी स्वच्छता की तालिका पर एक विशिष्ट स्थान प्राप्त कर सकेगा।
अंततः सरकारी सहभागिता के साथ एक सामाजिक और नैतिक सहभागिता की भी हमें ज़रूरत है। कई बार जब सरकारें विफल हो जाती हैं तो जनचेतना के काम को समाज अपना धर्म समझ लेता है और, तभी मानसिक और व्यवाहरिक स्तर पर एक बदलाव की शुरूआत होती है। क्योंकी, जब एक बार इंसान हृदय तक स्वच्छता के मानसिक रूप को अपना लेता है, तब वह खुद से व्यवहारिक रूप में परिवर्तित हो जाता है और हम एक स्वच्छ समाज की और अग्रसित हो जाते हैं।