इस्लामी दुनिया में नारीवाद की हकीकत

March 7, 2021 - 14:50
December 7, 2021 - 22:43
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इस्लामी दुनिया में नारीवाद की हकीकत

यह निबंध सबसे चर्चित विषयों में से एक पर है, “इस्लामी दुनिया में नारीवाद”। यह नारीवाद के एक संक्षिप्त परिचय से प्रारंभ होता है। उसके बाद यह निबंध अपनी मुख्यधारा पर आते हुए नारीवाद को इस्लामी ऐनक से देखता है। यह पहले इसके उद्गम पर ध्यान केंद्रित करता है और फिर गहराई से इसकी जगह-जगह विस्तृत टहनियों की जाँच करता है। फिर यह नाव अगर बढ़ाते हुए आलोचनाओं की ओर जाता है और अंततः एक आशावादी टापू पर कुछ अनुत्तरित सवालों की खोज में रुकता है।

नारीवाद एक ऐसी विचारधारा है जो हर क्षेत्र में [राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, आदि] में हर लिंग की समानता की बात करती है। आज तक कई नारीवादी आंदोलन ही हैं जिन्होंने महिलाओं के खिलाफ हो रहे उत्पीड़न, प्रजनन अधिकार, समान आय, मताधिकार, शिक्षा का अधिकार, मातृत्व अवकाश, यौन हिंसा, चयन का अधिकार, आदि, के लिए आवाज़ उठाई है। फेमिनिज्म [नारीवाद] शब्द का प्रयोग सबसे पहले एक यूटोपियन समाजवादी चार्ल्स फोर्रिएर ने किया था। इसके बाद नारीवाद ने आपने पंख तेज़ी से बिखेरे एवं इसकी विभिन्न लहरें जैसे कि पहली लहर[उदारवादी], दूसरी लहर[उग्रवादी], तीसरी लहर, चौथी लहर, आदि, उठी। विभिन्न समाजों ने इसे अपने अनुसार समझा और व्याख्या की। इस्लामी दुनिया के नारीवाद पर आधारित होने के कारण यह सिर्फ इसी पहलू पर केंद्रित रहेगा।।

दुनिया का चाहे कोई भी समाज क्यों न हो, फिर चाहे वह धार्मिक हो या न, विकसित हो या न, कुछ भी सनातन नहीं रहा, लेकिन जो एक चीज़ निरंतर रही है वह है 'पितृसत्ता'। सभी समाजों की महिलाओं को इस पितृसत्तात्मक बक्से के नुकसानों से जूझना पड़ता है। जिसमें उन्हें खुद को कैद रखना पड़ता है। इस्लामी समाज में भी महिलाओं की स्थिति भिन्न नहीं है। इस्लामी नारीवाद को मार्गोट बद्रान के शब्दों में बड़ी ही सरलता से समझा जा सकताहै:-“इस्लामी प्रतिमान के भीतर व्यक्त नारीवादी प्रवचन और अभ्यास।” इस्लामी नारीवाद की संकल्पना करने वाले पहले विद्वानों में से

एक उमैमा- अबु- बक्र हैं {काइरो विश्वविद्यालय में प्रोफेसर}। उनके अनुसार नारीवाद की विविधता को मान्यता देना अनिवार्य है, वे आगे कहती हैं कि इसके कुछ प्रकार धर्म के निर्विरोध ही नहीं हैं बल्कि धर्म पर बहुत ज़्यादा आधारित भी हैं। वे कहती हैं कि एक अरब-मिस्री महिला होने के नाते वे बता सकती हैं कि इस्लामी नारीवाद भी एक ऐसा ही प्रकार है, जहाँ लैंगिक जागरूकता पैदा करने के लिए विवेक से इस्लामी सिद्धांतों का उपयोग करना इस्लामी नारीवाद का स्तंभ होना चाहिए।

मार्गोट बद्रान आगे कहती हैं कि इस्लाम के रूढ़िवाद और कट्टरपंथी ने इसकी पितृसत्तात्मक तस्वीर को और भी खराब कर दिया है। बद्रान कहती हैं कि इस्लामी नारीवादी कुरान की अनुकूल व्याख्या द्वारा समानता की तलाश करते हैं। वे ये भी कहती हैं कि यह धर्मनिरपेक्ष नारीवाद से ज़्यादा कट्टर है क्योंकि यह धर्मशास्त्र के गहरे अध्ययन से लैंगिक समानता की बात करता है। उनका समर्थन करते हुए अस्मा बर्लास कहती हैं कि जिन देशों की लगभग 98% आबादी मुसलमान हो वहाँ पर धर्म को नज़रअंदाज़ करना नामुमकिन है और इसलिए उसी से कोई रास्ता निकालना ही उचित उपाय है। आधुनिक इस्लामी नारीवाद की संस्थापक, मोरोक्कन समाजवादी फ़ातिमा मेरिनिसी आपनी किताब “बेयोंड द वेल्स” में मअहिलाओं की लैंगिकता के लिए पितृसत्तात्मक उत्पीड़नों के खिलाफ आवाज़ उठती हैं। मानव वैज्ञानिक ज़ीबा मीर होस्सेइनि के अनुसार, यह एक नयी चेतना और एक नई सोच है जो इस्लामी नारीवादियों की माँगों और आकांक्षाओं में इस्लामी भाषा और वैधता के साथ झलकता है।

मशहूर सामाजिक वैज्ञानिक होदा: सलाह इस्लामी नारीवाद को तीन भागों में बाँटती हैं: रूढ़िवादी, उदारवादी और कट्टरपंथी जिनका प्रतिनिधित्व मिस्री विद्वान सोअद् सलेह, हेबा रूफ एज़्ज़त और नस्र हामेद अबू ज़येद क्रमशः करते हैं। यहाँ पर सलेह उदारवादी व्याख्यानों की बात करती हैं जैसे औरतों द्वारा फ़तवे ज़ारी करना, हेबा ने पश्चिमी नारीवाद की आलोचना की है और लैंगिक कानूनों में सुधारों की माँग की है और एज़्ज़त ने भी बड़े ही विवेक से उन धार्मिक व्याख्याओं की आलोचना की है जो औरतों की आधीनता का समर्थन करते हैं। इस्लामी देशों में उत्तराधिकर के कानून क़ुरान की आयतों से लिए गए हैं, जिसमें पुरुषों को ज़्यादातर महिलाओं से अधिक या दोगुना प्राप्त होता है। इसके बाद पुरुष अपनी पत्नियों, बहनों, बेटियों, आदि को को छोड़ देते हैं जिस कारण वे न सिर्फ अकेली रह जाती हैं बल्कि निराश्रित भी हो जाती हैं। संदर्भ और राजनीतिक रुख के आधार पर इस्लामी नारीवाद के विविध और सुनहरे आयामों को पहचाना जा सकता है। जो भी उपकरण इस्लामी नारीवादी और कार्यकर्ता प्रयोग में लाते हैं वे मुख्यतः दो तत्वों पर निर्भर करते हैं:

• इतिहास को पुनः समझना और लिखना

• धार्मिक शास्त्रों का नये सिरे से अध्ययन।

इस्लाम के इतिहास को पुनः लिखने में संलग्न नारीवादी सातवीं शताब्दी में अरब प्रायद्वीप की स्थिति को ध्यान में रखते हुए कहती हैं की इस्लाम के प्रगतिशील और क्रांतिकारी स्वभाव ने महिलाओं के उद्धार में काफ़ी मदद की है, जैसे, भ्रूण हत्या पर रोक लगाना, आरतों और बच्चों का उत्तराधिकार में भाग निश्चित करना, आदि। आज़ीज़ाह अल हिबरी ने इस्लामी इतिहास के शुरुआती वर्षों का अध्ययन किया और उसका मूल्यांकन करते हुए वे बताती हैं की कैसे इस्लाम में 'पितृसत्तात्मक अधिग्रहण' के चलते औरतों के योगदान और उनके पक्ष को अदृश्य बना दिया। बाकी विद्वान मुहम्मद की दो पत्नियों, आईशा और ख़दीजा का उदाहरण देते हुए बताते हैं की वे इस्लाम में प्रगतिशील नारीत्व का प्रतीक हैं और दृढ़ता से इस्लाम के शुरुआती दौर में अपनी छाप छोड़ती हैं। इस्लाम के इतिहास में औरतों को जगह और सम्मान दिलाना एक राजनीतिक कार्य बन जाता है। इस्लामी इतिहास के पुनः अध्ययन के अलावा इस्लामी धर्मशास्त्रों को नए सिरे से पढ़ना भी इस ओर एक प्रभावशाली कदम है। यह कदम इज्तिहाद(स्वतंत्र पूछताछ) की संकल्पना पर आधारित है, इस्लामिक न्यायशास्त्र से निकला हुआ एक अभ्यास जो स्वतंत्र तरीके से धर्मशास्त्रों को पढ़ने और तर्क की अनुमति देता है। ध्यान देने योग्य बात तो यह है की इज्तिहाद के द्वारा ये दावा किया जाने लगा है की इस्लाम असल में नारी विरोधी नहीं है, इसकी पितृसत्तात्मक समाज ने ही इस तरह से व्याख्या की है कि इसका प्रयोग औरतों के अधीनीकरण के लिए होने लगा।

• राष्ट्रीय स्तर पर देखा जाए तो महत्त्वपूर्ण इस्लामी नारीवादी ज्ञान परियोजनाएँ ईरान, भारत, मोरोक्को, मिस्र, मलेशिया, इन्डोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में उभरी हैं। हालाँकि ये परियोजनाएँ अपने ज्ञान परिणामों और राजनीतिक महत्त्वों में भिन्न हैं लेकिन दो मुख्य तत्वों ने इन्हें जोड़ रखा है: ये अध्ययन और परियोजनाएँ महिला विद्वानों द्वारा विश्वविद्यालयों और अनुसंधान केंद्रों में किए जाते हैं और ये व्याख्या केंद्रित और राष्ट्रीय भाषाओं में होते हैं, फिर आगे के कानूनी सुधार भी इन्हीं से आकर्षित और आधारित होते हैं।

भारत में इस्लामी नारीवादी आंदोलन मुस्लिम लॉ बोर्ड के ज़रिये लैंगिक समानता की माँग करता है। अपनी माँगों को वैधता प्रदान करते हुए भारतीय इस्लामी नारीवादी महिलाएँ धर्मनिर्पेक्ष नारीवादियों से हट के भारतीय संविधान और सार्वभौमिक मानवाधिकार सिद्धांतों की जगह कुरान का संदर्भ लेती

हैं। वे बताती हैं की क़ुरान उन्हें कई अधिकार प्रदान करती है लेकिन पितृसत्ता के कारण वे उनसे वंचित रह जाती हैं। वे पुरुष उलेमाओं पर ये आरोप लगाती हैं की वे अपने पद का प्रयोग करके कम पढ़े-लिखे मुस्लिम समुदाय को कुरान की पितृसत्तात्मक व्याख्या पढ़ने और अभ्यास में लाने के लिए कहते हैं। इन आंदोलनकारियों की गतिविधियों के कारण वैश्वीकरण की ओर बढ़ती मुस्लिम दुनिया में धार्मिक सत्ता में एक विखंडन देखने को मिला है। जन शिक्षा का प्रसार, मीडिया और परिवहन के नए रूप, मोबाइल शक्ति श्रम, आदि के कारण अनन्य अधिकारिक ज्ञान को अनेक प्रश्नों का सामना करना पड़ रहा है, जिसमें महिलाओं ने एक अहम भूमिका निभाई है। यह कहना की यह आंदोलन सफल हुआ है या नहीं अभी भी एक खुले प्रश्न की भाँति है लेकिन इसका प्रभाव तो निश्चित रूप से ही देखने को मिला है।

इस्लामी नारीवाद की संकल्पना को समर्थन तो मिला ही है लेकिन आलोचनाओं से अछूता नहीं रह पाया। ना सिर्फ धार्मिक सत्ताधारियों से बल्कि धर्मनिर्पेक्ष नारीवादियों से भी आलोचनाओं और प्रश्नों की बौछार हुई है। इस्लामी नारीवादियों पर पितृसत्ता के प्रति क्षमाशील होने के आरोप लगते रहे हैं तथा यह भी कहा जाता है की उन्होंने कुरान से सिर्फ कुछ चयनित अनुकूल आयतों की ही व्याख्या की है। उनकी आलोचना उनके शाही रवैये और अध्ययन एवं अनुसंधान केंद्रों तक सीमित रहने के लिए भी होती है। बेशक कई महिलाओं ने इस आंदोलन में हिस्सा लिया है लेकिन फिर भी इसका स्वभाव समावेशी नहीं है। साथ ही यह अन्य पहलू जैसे वर्ग, जाति, आदि को पूर्णतः नज़रंदाज़ कर देता है। इतना ही नहीं यह बाकी लिंगों को भी महत्व नहीं देता और केवल स्त्री और पुरुषों को ही संभव लिंगों के तौर पर देखता है।

धर्म और नारीवाद की अन्य धाराओं की आलोचनाओं का विषय होते ही भी इसने एक का तो बेहतरीन तरीके से किया है, इसने अध्ययन के क्षेत्र में इस्लामी नारियों और नारीवाद को एक उचित स्थान प्राप्त करवाया है जिसे पहले सिर्फ पश्चिमी महिलाओं का क्षेत्र माना जाता था। हालांकि कई प्रश्नों के उत्तर अभी बाकी भी हैं और इसके सामने खड़े हैं लेकिन यह सब देखने की बात रहेगी की यह कैसे इनका सामना करता है और आने वाली चुनौतियों से लड़ेगा।

संदर्भ:-

• Islamic Feminism- Mulki Al

Sharmani.

• Dilemmas of Islamic and Secular

• Feminists and Feminisms- Ahmed

• Ghosh.

• - Between Secular and Islamic

• Feminism, Feminism in Islam, What

• is in ?- Margot Badran.

• - The Quest for Gender Justice- Mir

• Hosseini Ziba.

By:- सौम्या हिन्दवान

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