आधुनिक भारत में समलैंगिकों की स्वतंत्रता का सिकुड़ा हुआ दायरा

समलैंगिक समुदाय समाज का वह समुदाय है जो अपने अस्तित्व की लड़ाई सदियों से लड़ता आ रहा है परंतु आज भी केवल कानूनी स्वीकृति मिलने से तथा सामाजिक स्वीकृति नहीं मिल पाने के कारण वह अपने आप को स्वतंत्र नहीं मान पाते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने भले ही 6 सितंबर 2018 को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 377 जो समलैंगिकता को अपराध करार देती थी रद्द कर दिया हो परंतु उसके बाद भी आज अधिकतर समलैंगिक जन सामाजिक बहिष्कार के डर से अपनी पहचान की आजादी से वंचित रह रहे है।

July 26, 2021 - 02:25
December 8, 2021 - 14:18
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आधुनिक भारत में समलैंगिकों की स्वतंत्रता का सिकुड़ा हुआ दायरा

आजादी, मुक्ति या स्वाधीनता- हिंदी शब्द कोश में कई ऐसे शब्द हैं जो स्वतंत्रता को निरूपित करते हैं। अगर देखा जाए तो स्वतंत्रता एक आत्मनिष्ठ विषय वस्तु है जिसकी परिभाषा व्यक्ति दर व्यक्ति बदलती रहती है। जैसे विद्यार्थियों के लिए स्वतंत्रता का अर्थ है बिना किसी दबाव के अपने मुताबिक विज्ञान, वाणिज्य अथवा कला संकायों में दाखिला लेकर पढ़ाई करना हो सकता है, वहीं महिलाओं के लिए इसका अर्थ अपने जीवन के फैसले खुद से ले पाना तथा घर से बाहर निकल कर भी अपनी ईच्छा से काम कर पाना हो सकता है। पुरुषों के लिए इसका अर्थ अपनी भावनाओं को बिना किसी भय के प्रकट कर सकने से हो सकता है। इसी प्रकार समाज के हर वर्ग की स्वतंत्रता से अपनी-अपनी अपेक्षाएं हैं और इसे लेकर अपनी-अपनी परिभाषा है जिसका समाज के द्वारा सर्व-सम्मान होना चाहिए।

वर्तमान समय में स्वतंत्रता को लेकर भिन्न-भिन्न लोगों की अपनी-अपनी राय हैं। अर्थशास्त्रियों के अनुसार भारत में आज भी आर्थिक स्वतंत्रता नहीं आई है और वहीं बात करें समाज शास्त्रियों की तो समाजशास्त्रियों के अनुसार भारत में सामाजिक स्वतंत्रता की कमी है। कोई कहता है की हम आज तक जातिवाद से स्वतंत्र नहीं हो पाए है तथा कोई महिलाओं को आज भी पितृसत्ता के बेड़ियों में जकड़ा पाता है। पत्रकारों की माने तो उन्हें अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है तथा बुद्धिजीवी वर्ग की मान ली जाए तो आज बार-बार मानव अधिकार का उल्लंघन हो रहा है। पंरतु इसी स्वतंत्रता के सवाल पर बोलने में संकोच करता हुआ एक वर्ग और भी है जिसकी आवाज़ को या तो सुना नहीं गया या बहुत कम सुना गया। वह वर्ग है समलैंगिकों का वर्ग।

इस समाज की विडंबना ही कही जाएगी कि जहां एक ओर विभिन्न समुदाय या वर्ग अपनी-अपनी आजादी की रेखाओं को बड़ा करने में लगा है तो वहीं हमारे बीच एक वर्ग ऐसा भी है जिनके अधिकारों की बात तो छोड़िए, उनके अस्तित्व को भी तथाकथित समाज द्वारा स्वीकारा नहीं जाता है। जी हां समलैंगिक समुदाय समाज का वह समुदाय है जो अपने अस्तित्व की लड़ाई सदियों से लड़ता आ रहा है परंतु आज भी केवल कानूनी स्वीकृति मिलने से तथा सामाजिक स्वीकृति नहीं मिल पाने के कारण वह अपने आप को स्वतंत्र नहीं मान पाते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने भले ही 6 सितंबर 2018 को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 377 जो समलैंगिकता को अपराध करार देती थी उसे नवजोत सिंह जोहर बनाम भारत सरकार केस में रद्द कर दिया हो परंतु उसके बाद भी आज अधिकतर समलैंगिक जन सामाजिक बहिष्कार के डर से अपनी पहचान की आजादी से भी वंचित रह रहे है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय के बेंच में शामिल जस्टिस इंदु मल्होत्रा जी ने तो फैसला सुनाते हुए यहां तक टिप्पणी की थी कि-“LGBT समुदाय को बहुसंख्यकों द्वारा समलैंगिकता को पहचान न देने पर डर के साए में रहने को मजबूर किया गया। इसलिए इतिहास उनसे माफी मांगना चाहता है।“ परंतु ये बातें कागज़ी भाषण तक ही ठीक लगती हैं। वास्तविकता में बहुसंख्यक समुदाय के बहुत से लोग आज भी समलेंगिको को समाज के लिए एक अभिशाप मानते हैं।

समलैंगिकता या LGBT क्या है?

सबसे पहले समलैंगिकता या LGBT को सही से समझना आवश्यक है। दरअसल इंसानी तौर पर हम विपरीत लिंगों के आकर्षण को सामान्य मानते हैं और समान लिंगों के मध्य के आकर्षण को असामान्य। किसी पुरुष का स्त्री के प्रति आकर्षण और स्त्री का पुरुष के प्रति आकर्षण एक सामान्य प्रक्रिया है। लेकिन इसके अलावा भी आकर्षण कई रूपों में हो सकता है, जिसे हम असामान्य करार देकर कई अलग-अलग कैटेगिरी में बांटते हैं। इसमें स्त्री का स्त्री के प्रति आकर्ष‍ित होना 'लैस्बियन' में, जबकि पुरुष का पुरुष के प्रति आकर्षित होना 'गे' कैटेगिरी में आता है। वहीं ऐसे लोग जो महिला एवं पुरुष दोनों की ओर आकर्षित होते हैं, इन्हें 'बायसेक्सुअल' कहा जाता है। कुछ लोग इस समुदाय के ऐसे भी हैं जो मेडिकल सांइस की मदद से सर्जरी द्वारा सेक्स चेंज करवा लेते हैं, इन लोगों को 'ट्रांसजेंडर' कहा जाता है। इस तरह के लोगों में मन और शरीर दो धड़ों में बंटा होता है क्योंकि ये मन से वैसा महसूस नहीं करते जैसा इनका शरीर होता है।

सिर्फ इसलिए कि वे बहुसंख्यकों से अलग है, कहीं से भी उन्हें गलत साबित नहीं करता है। समाज उनके प्राकृतिक न होने पर सवाल खड़ा करता है और यह कहता हुआ फिरता है कि समलैंगिकता के प्रमाण प्रकृति में नहीं पाए जाते इसलिए यह एक बीमारी है तथा अप्राकृतिक है। लेकिन एक शोध के अनुसार समलैंगिक आचरण लगभग हर प्रकार के प्राणियों में पाया जाता है और यह विषमलैंगिकता जितना ही प्रकृति का अटूट अंग है। इसी कड़ी में अमेरिकन सायकोलोजिकल असोसिएशन ने 1973 में करार दिया कि समलैंगिकता विकार या रोग नहीं है।

अंत में, ‘ऋग्वेद’ के वचन का उदाहरण लिया जाए जिसमें लिखा है की “जो भी प्रकृति का भाग है, वह प्राकृतिक ही है।“  अतः जब समलैंगिक समुदाय के लोग तथा समलैंगिकता दोनों उसी प्रकृति की ही देन है तो समलैगिकता  को अप्राकृतिक कैसे कहा जा सकता है?

भारत में समलैंगिक चेतना को लेकर बात की जाए तो यह कहना भी गलत होगा कि समाज की चेतना समलैंगिकों को लेकर बिल्कुल शून्य है। अगर ऐसा रहता तो धारा 377 का रद्द होना असम्भव था। चलिए समझते हैं धारा 377 के प्रावधान को हटाने में हुई न्यायिक उठा पटक को। धारा 377 जिसे “अप्राकृतिक अपराध” के नाम से भी जाना जाता है, को 1857 के विद्रोह के बाद औपनिवेशिक शासन द्वारा अधिनियमित किया गया था। 2001 में दिल्ली उच्च न्यायालय में समलैंगिक संबंधों को अपराध घोषित करने वाली IPC की धारा 377 को गैर-संवैधानिक घोषित करने की मांग सामाजिक संस्था नाज़ फाउंडेशन ने  उठाई और अपनी याचिका में कहा कि धारा 377 कई लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन कर रही है। करीब 9 साल के बाद जुलाई 2009 को दिल्ली हाईकोर्ट ने फैसला याचिकाकर्त्ता के पक्ष में दिया और 377 को रद्द कर दिया गया। लेकिन यह मामला दिल्ली हाईकोर्ट से सुप्रीम कोर्ट पहुँच गया और  दिसंबर 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को पलट दिया और साथ ही धारा 377 को फिर से लागू कर दिया।2013 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के साथ ही करीब साढ़े चार साल तक सहमति से बना समलैंगिक यौन संबंध कानूनी रहने के बाद फिर से गैरकानूनी हो गया। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के 6 सितंबर, 2018 को दिए गए ऐतिहासिक फैसले से समलैंगिकता अपराध के दायरे से बाहर हो गई और एक लंबी लड़ाई के बाद समलैंगिकों ने अपने अस्तित्व को मंजूरी दिलवा ही दी।

आज हम सब समाज में हो रहे परिवर्तन को देख रहे हैं और इसके साक्षी बन रहे है तथा साथ ही साथ नि:संदेह हम सब समावेशी भी हो रहे हैं लेकिन क्या मात्र इतने बदलाव पर्याप्त है जिससे समलैंगिकों को उनकी आजादी का एहसास दिलाया जा सकें?

अगर उनके जीवन की कल्पना की जाए जहां वो लोग हर दिन समाज से अपने अस्तित्व के लिए जंग लड़ते होंगे जो उन्होंने खुद से नहीं चुना है बल्कि जिसे प्रकृति ने उन्हें भेंट किया है। अगर कल्पना कि जाए उस डर की जहां वे यह जानते हुए भी कि समाज और यहां तक उनके अपने माता पिता भी उन्हें शायद नहीं अपनाएंगे अगर उन्होंने अपनी वास्तविकता जाहिर कर दी। इस डर के पीछे के कारण का अनुभव किया जाए तो हम पायेंगे की  हम उनके साहस का उत्साहवर्धन करने की बजाय उन्हें बहिष्कृत कर देते हैं। शहरों की हालत को फिर भी कुछ ठीक माना जा सकता है परन्तु गांवों में उनकी स्थिति और भी बदतर है। निरक्षरता की वजह से लोग इसे बीमारी मान लेते हैं तथा ओझा-तांत्रिक से झाड़ फूंक का सहारा लेते है और कई बार तो अपनी मानसिक संतुलन भी खो बैठते हैं। भारत के हर कोने से आए दिन समलैंगिकों  की आत्महत्या की खबरें आते रहती है। आज इस संबंध में सबसे बड़ा सवाल है कि हम ये किस प्रकार के समाज का निर्माण कर रहे है की ऐसे समुदाय को संरक्षण देने की बजाय हम उन्हें आत्महत्या करने पर विवश कर रहे हैं।

पंरतु हमें इस बारे में सोचना होगा, हमें बदलना होगा उस आने वाली पीढ़ी के लिए जिन्हें बेहद उम्मीदें हैं हम सब से। हमें बदलना होगा उस मासूम बच्चे को आत्महत्या करने से रोकने के लिए जो अपने अस्तित्व को लेकर डरा हुआ है। हमें बदलना होगा उन बूढ़े मां-बाप के लिए जिन्होंने समाज के डर से अपने बच्चों को त्याग दिया। हमें आगे आना होगा उन लोगों के लिए जो अपनी जिंदगी को बोझ मान चूके हैं। हमें लड़ना होगा ऐसे प्रावधानों ऐसी सोच के खिलाफ जो हमारे बुद्धिजीवी होने पर सवाल खड़ा करती हो। परिवर्तन ही संसार का नियम है और हमारे समाज को यह अपनाना ही होगा।

 

Abhishek kumar gupta खुद की खोज में निकला हुआ मुसाफिर हूं।