सुभाष की चौकीदारी के चौबीस साल

यह कहानी चौबीस साल से दिल्ली में चौकीदार की नौकरी कर रहे एक आदमी की है, जो दिल्ली की जिंदगी से खुश नहीं होते हुए भी यहां रहने को मजबूर है।

April 10, 2021 - 18:53
December 8, 2021 - 08:09
 0
सुभाष की चौकीदारी के चौबीस साल
सुभाष

52 साल के सुभाष करीब 24 साल से भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी) में वाचमैन का काम करते हैँ। सुभाष मूलतः मुजफ्फरनगर के रहने वाले हैँ। वो 1997 में दिल्ली आए थे और तभी से वो वाचमैन का काम कर रहे हैँ। वाचमैन की नौकरी करने से उनको 15 हजार रुपये की तनख्वाह मिलती है। कम तनख्वाह होने के चलते सुभाष दिन में पानी सप्लाई का काम करते हैं  और रात में वाचमैन का काम। परिवार में दो बच्चों समेत चार लोग हैं जो दिल्ली में ही रहते हैं। सुभाष कहते हैँ कि इतने कम पैसों में दिल्ली जैसे शहर में घर का खर्च चलाना बहुत ही मुश्किल है, पैसों की कमी के चलते दोनों बच्चों की पढ़ाई भी छूट गई है। दोनों बच्चे नौकरी करने को मजबूर है, जिनमें से एक की उम्र 20 वर्ष है और दूसरे की उम्र 18 वर्ष है।

सुभाष का जन्म गाँव कुरथल (मुजफ्फरनगर) में हुआ था। घर पर आय के  नाम पर केवल खेती थी। फसल अच्छी होती तो घर अच्छे से चलता अगर कहीं फसल खराब हुई तो भूखे रहने की नौबत आ जाती। खेती पर निर्भरता के चलते घर की आर्थिक स्थिति ऐसी थी कि हाईस्कूल तक ही पढ़ाई कर सके। घर की स्थिति को देख सुभाष ने नौकरी के लिए कई प्रयास किए। कम पढ़े होने के कारण 20 साल की उम्र में सुभाष की उत्तरप्रदेश होमगार्ड में नौकरी लग गई। नौकरी 500 रुपये प्रति माह पर लगी थी। करीब 9 साल तक होमगार्ड रहने के बाद सुभाष नौकरी छोड़ दिल्ली चले आए। पुरानी नौकरी छोड़ दिल्ली आने का उनका उद्देश्य अच्छी तनख्वाह पर स्थाई नौकरी था। 
नौकरी की तलाश में सुभाष गाँव के एक दोस्त के साथ गाजियाबाद आ गए। जो दिल्ली में वचमैन की नौकरी करता था। कई जगह नौकरी का प्रयास करने के बाद उनके दोस्त ने सुभाष की नौकरी लगवा दी। जहां वह खुद काम करता था। दिल्ली में नौकरी लगने के बाद सुभाष की शादी मंजू से हो गई थी। शादी के बाद पत्नी दिल्ली आ गई और वो यहीं बस गए। 


सुभाष दुखी मन से  कहते हैं कि दिल्ली हम गरीबों के लिए नहीं है, वो यहाँ आकर फंस गए हैं। दिल्ली शहर उनके लिए है जिनकी महीने की तनख्वाह कम से कम 60 से 70 हजार हो। यहाँ 15 हजार की तनख्वाह में घर का किराया, बिजली का बिल और घर के और भी कई खर्चे हैं। इतने कम पैसे में क्या खुद खाएं और क्या बच्चों को खिलाएं ?
सुभाष अपने गाँव को याद करते हैं हुए  कहते हैं कि उन्हें गाँव ही लौट जाना चाहिए था। वहाँ न तो कमरे का किराया देना पड़ता और न ही बिजली, पानी के खर्चे देने पड़ते। वहीं कुछ काम कर लेते, कम से कम बच्चों को पढ़ा तो लेते। वो कहते हैं कि उनकी जिंदगी की सबसे बड़ी गलती थी कि वो होमगार्ड कि नौकरी छोड़ दिल्ली चले आए । 
वो बताते हैं कि दिल्ली आने से घर पर जो कुछ था वो भी चला गया। जब वो दिल्ली नौकरी करने आए तो पिता जी ने उनके घर का हिस्सा भी उनके छोटे भाई को दे दिया। पिता जी ने कहा “तुम तो नौकरी वाले हो कहीं भी घर  बना लोगे, बिना नौकरी के वो घर कैसे बना पाएगा ? “ सुभाष कहते हैं कि इतने कम पैसों में घर का  खर्च तो चलता नहीं, घर कैसे बना लें ? उनके लिए संस्थान में नौकरी करना घातक रहा, न तो नौकरी फिक्स हुई और न ही कोई भविष्य निधि (pf) मिला, जिससे बुढ़ापे का गुजारा हो सके। 
उनसे पूछने पर कि इतनी समस्या थी तो आप गाँव क्यों नहीं चले गए। सुभाष कहते हैं मैंने तो कई बार परिवार वालों से गाँव जाकर रहने कि बात कही पर न तो पत्नी जाने को तैयार है और न ही बच्चे। नौकरी के 6 साल बचे हैं जिंदगी जैसे-तैसे कट रही है।