गणेश शंकर विद्यार्थी एक व्यक्तित्व जो कहता था "मैं हिन्दू-मुसलमान झगड़े की मूल वजह चुनाव को समझता हूं"
आज बात गणेश शंकर विद्यार्थी जी की जिन्हे हमने याद करके भूलने की भी औपचारिकता नहीं निभाई कभी ।
आज( 25मार्च) उस शख्स की शहादत का दिवस है जिसे हमने भगत सिंह और उनके साथियों की तरह एक दिन याद कर दूसरे दिन भूल जाने का विशेषाधिकार भी नहीं दिया , हालांकि ये शख्स भगत सिंह के साथी थे और जिस प्रताप अखबार में भगत सिंह के लेख छपते थे उसके संपादक थे , अब नाम आपको क्या ही याद आया होगा खैर छोड़िए, हम बताते है जिनके बारे में हम आज बात करने जा रहे है उनके नाम है गणेश शंकर विद्यार्थी ।
हम जब आज गणेश शंकर विद्यार्थी को याद कर रहे है उनके शहादत दिवस के अवसर में तब " वैश्विक स्वतन्त्रता प्रहरी रिपोर्ट( global freedom watchdog report) " भारत को मुक्त वर्ग से आंशिक रूप से मुक्त वर्ग में कर देती है और प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत 142वें स्थान पर है और भारत के विभिन्न पत्रकारों पर राजद्रोह के कानून के तहत केस दर्ज किए जा रहे है जिसके उद्धरण स्वरूप हम राजदीप सरदेसाई, सिद्दीकी कप्पन ,मृणाल पांडे, जफर आगा, परेश नाथ , अनंत नाथ, विनोद कुमार जोसे, सिद्धार्थ वरदराजन तो मनदीप पूनिया सरीखे पत्रकारों को गिरफ्तार करके यातनाएं देने के प्रयत्न किए जा रहे है । लेकिन दूसरी ओर इस दृश्य के एक और भयावह चित्र है उसका चित्रण आप इन शब्दो से पढ़िए की मीडिया का बड़ा वर्ग एक सत्ता दल और उसके नेता की चाटुकारिता में इतना निपुण हो चुका है की भारतीय संविधान के सिद्धांत और मूल्यों से भटक कर अब मीडिया बहुसंख्यकवाद का समर्थन करते हुए , अल्पसंख्यक समूह के शोषण और उत्पीड़न का औजार बनकर रह गया है सत्तादल के नेताओ के हाथों में। कल्पना करना अब दूर नहीं है की जल्द रेडियो रवांडा के तर्ज में हमारे यहां मीडिया के इस खेल के अंत में टीवी रिपब्लिक का उदहारण दिया जायेगा दुखद ये होगा तब भारत का विचार और भारत दोनो ही नहीं बचे होंगे उस स्थिति पर विचार करने के लिए
इसलिए इससे पहले की मुझे ये लेख लिखने की अनुमति न हो और लोकतंत्र की सारी संस्थाओं पर आधिकारिक तौर पर औपचारिक आपातकाल लगा दिया जाए इससे पहले चलिए हम विषय के संदर्भ को समझ चुकने के बाद अब विषय पर आते हैं ।
भगत सिंह ने एक लेख जून 1928 के कीर्ति में लिखा था "साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज " उसमे भगत सिंह दंगे फैलाने के कार्य को करने वालो में अखबार और पत्रकारों के बारे में लिखते है :
"दूसरे सज्जन जो साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, अखबार वाले हैं। पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था। आज बहुत ही गन्दा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। ऐसे लेखक बहुत कम है जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो।
अखबारों का असली कर्त्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्त्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या "
ऊपर लेख में जिन दंगो के बारे में भगत सिंह लिख रहे थे वैसे ही एक दंगो में 1931 में 25 मार्च 1931 को दंगो को रोकने के लिए गए गणेश शंकर विद्यार्थी को भीड़ ने मार दिया , कुछ दिनों बाद विद्यार्थी को पहचाना गया तब पता चला की शरीर पर चाकू से हुए हमले के निशान थे , वो विद्यार्थी जिन्हे जाना था कांग्रेस के कराची सेशन में भाग लेने वो शहीद हो चुके थे।
इसे भारत देश का दुर्भाग्य ही कहेंगे की 27 फरवरी 1931 को चंद्रशेखर आज़ाद को खोने के बाद , 23मार्च 1931 को भगत सिंह , सुखदेव और राजगुरु की शहादत के बाद , भारत ने अपने प्रतापी संपादक विद्यार्थी को 25मार्च को खो दिया।
गणेश शंकर विद्यार्थी की मौत को याद करते हुए गांधीजी में यंग इंडिया में लिखा था
"गणेश शंकर विद्यार्थी की मृत्यु ऐसी है की हम सब उससे ईर्षा करेंगे। उनका खून सीमेंट है जो अंततः दो समुदायों को बांध देगा। कोई भी समझौता हमारे दिलों को नहीं बाँधेगा। लेकिन गणेश शंकर विद्यार्थी जैसी वीरता ने अंत में पत्थर दिलों को पिघलाने के लिए बाध्य किया, उन्हें एक में पिघला दिया। जहर हालांकि इतना गहरा गया है कि एक आदमी का रक्त भी इतना महान, इतना आत्मसमर्पण करने वाला और इतना बहादुर है कि गणेश शंकर विद्यार्थी का रक्त आज भी हमें धोने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। इस महान उदाहरण को हम सभी को एक समान प्रयास के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए ताकि अगर ऐसे अवसर फिरसे हो तो हम भी वही करे।
( अंग्रेज़ी वर्जन
Mahatma Gandhi paid him the following tribute in the pages of 'Young India'. "The death of Ganesh Shankar Vidyarthi was one to be envied by us all. His blood is the cement that will ultimately bind the two communities. No pact will bind our hearts. But heroism such as Ganesh Shankar Vidyarthi showed is bound in the end to melt the stoniest hearts, melt them into one. The poison has however gone so deep that the blood even of a man so great, so self-sacrificing and so utterly brave as Ganesh Shankar Vidyarthi may today not be enough to wash us of it. Let this noble example stimulate us all to a similar effort should the occasion arise again".
विद्यार्थी के समय में भी हिंदू राष्ट्र के नाम में धार्मिक कट्टरता और संकीर्णता को बढ़ावा दिया जा रहा था तब अपने "राष्ट्रीयता नाम के लेख में विद्यार्थी लिखते है , ‘हमें जानबूझकर मूर्ख नहीं बनना चाहिए और गलत रास्ते नहीं अपनाने चाहिए. हिंदू राष्ट्र- हिंदू राष्ट्र चिल्लाने वाले भारी भूल कर रहे हैं. इन लोगों ने अभी तक राष्ट्र शब्द का अर्थ ही नहीं समझा है.’
क्या आज माहौल बदल गया है, नहीं बिलकुल नहीं
कश्मीर, दादरी , बाबरी और मोब लिंचिंग के उदहारण भरे हुए है मगर आज की पत्रकारिता के पास गणेश शंकर विद्यार्थी नहीं है इसीलिए आज की पत्रकारिता खुले मूंह हिंदू राष्ट्र को समर्पित प्रेम करते हुए नजर आती है लेकिन फिर इसमें क्या ही दुख है इतिहास में हमेशा निष्ठुर नायकों को समर्पित प्रेमिका ही मिली है ।
मुस्लिम समुदाय के असामाजिक तत्वों के विषय में विद्यार्थी जी ने लिखा था "ऐसे लोग जो टर्की, काबुल, मक्का या जेद्दा का सपना देखते हैं, वे भी इसी तरह की भूल कर रहे हैं. ये जगह उनकी जन्मभूमि नहीं है." विद्यार्थी जी आगे लिखते है , ‘इसमें कुछ भी कटुता नहीं समझी जानी चाहिए, यदि कहा जाए कि उनकी कब्रें इसी देश में बनेंगी और अगर वे लायक होंगे तो उनके मरसिये भी इसी देश में गाए जाएंगे "
सत्याग्रह में छपे हेमंत कुमार पांडेय जी के लेख के अनुसार , प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. रामविलास शर्मा का मानना था कि उनके असामयिक निधन से राष्ट्रीय राजनीति के साथ-साथ हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक विकास का जितना नुकसान हुआ उतना कांग्रेस के किसी दूसरे नेता की मृत्यु से नहीं हुआ.
ये नुकसान क्या था ? एक वैचारिक नजरिए की शीघ्र मौत जिसकी मौत के कारण धर्मांधता प्रचारित करने वाले अखबार चलते रहे वो होते तो इन अखबारों से सवाल करते शायद गांधी के शब्द इस्तेमाल करते हुए पूछते क्या राष्ट्रप्रेम के लिए घृणा आवश्यक है?
विद्यार्थी ने एक पत्र में लिखा था "मैं हिन्दू-मुसलमान के बीच झगड़े की मूल वजह चुनाव को समझता हूं। चुने जाने के बाद आदमी देश और जनता के काम का नहीं रहता।"
ये पत्र उन्होंने लिखा था बनारसी दास चतुर्वेदी को अपना गुस्सा जाहिर करते हुए देश के मौहाल पर और नेताओ के व्यवहार के विषय में।
27 अक्टूबर, 1924 को प्रताप में विद्यार्थी जी लिखते है "देश में धर्म की धूम है और इसके नाम पर उत्पात किए जा रहे हैं। लोग धर्म का मर्म जाने बिना ही इसके नाम पर जान लेने या देने के लिए तैयार हो जाते हैं।’ इसी लेख में आम आदमी के बारे में लिखते हुए वो लिखते है "ऐसे लोग कुछ भी समझते-बूझते नहीं हैं। कुछ दूसरे लोग इन्हें जिधर जोत देते हैं, ये लोग उधर ही जुत जाते हैं"
क्या ऐसा कुछ आज हो रहा है ,सोचिए जरा ,अरे सोचिए तो शायद हो रहा है क्या , क्या कहा आपने" गोधरा काण्ड" अरे ऐसा मत कहिए आप राजद्रोह करवाएंगे , अरे कोई रोको मेरी कलम को आज कही ये पत्रकारिता जिहाद करके ही न माने , हां ये आज भी इस देश में हो रहा है , एक नेता प्रदर्शनकारियो को कपड़ो से पहचानने की बात करते है ,वो नेता कौन है अब आप यही सोच रहे होंगे , भाई इतना भी मूर्ख नहीं हूं की प्रधान सेवक कह दू उन्हें तो एक नेता "देश के गद्दारी को गोली मारो सालो को कह देते है और यही ये धर्म के आधार पर शोषण नहीं रुकता , चुनावों के वक्त नारे दिए जाते है : मुसलमानों की दो जगह मस्जिद या कब्रिस्तान
अपने अखबार प्रताप के बारे में विद्यार्थी ने लिखा था :
"आज अपने हृदय में नई-नई आशाओं को धारण करके और अपने उद्देश्यों पर पूर्ण विश्वास रख कर ‘प्रताप’ कर्मक्षेत्र में आता है. समस्त मानव जाति का कल्याण हमारा परमोद्देश्य है और इस उद्देश्य की प्राप्ति का एक बहुत बड़ा और बहुत ज़रूरी साधन हम भारतवर्ष की उन्नति को समझते हैं."
उसके बाद वो पत्रकार के रूप में अपने कर्तव्य के बारे में लिखते है : "हम अपने देश और समाज की सेवा के पवित्र काम का भार अपने ऊपर लेते हैं. हम अपने भाइयों और बहनों को उनके कर्तव्य और अधिकार समझाने का यथाशक्ति प्रयत्न करेंगे. राजा और प्रजा में, एक जाति और दूसरी जाति में, एक संस्था और दूसरी संस्था में बैर और विरोध, अशांति और असंतोष न होने देना हम अपना परम कर्तव्य समझेंगे."
क्या आज किसी पत्रकार और पत्रकारिता समूह के ऐसे कर्तव्य है और अगर है तो क्या वो एक हत्यारे को हत्यारा कहने की हिम्मत करेंगे और उस हत्यारे से सिख दंगे , गोधरा के दंगे और हाल के दिल्ली दंगो पर सवाल करेंगे या फिर वो कवि नागार्जुन की कविता की पंक्ति "गूंगा रहो तो गुड मिलेगा" के सिद्धांत को अपनाते हुए मौन रहेंगे । ये लोग जो खुदको पत्रकार कहते है ये इतना कमजोर , डरे हुए और गूंगे है की शायद इन्ही जैसे लोगो के लिए सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने अपनी कविता " देश कागज पर बना नक्शा नहीं होता" में उनके लिए ही लिखा होगा
"आखिरी बात
बिल्कुल साफ
किसी हत्यारे को
कभी मत करो माफ
चाहे हो वह तुम्हारा यार
धर्म का ठेकेदार,
चाहे लोकतंत्र का
स्वनामधन्य पहरेदार।"
मगर इन स्वनाम पत्रकार घोषित समूहों को इससे भी प्रेरणा नहीं मिलती शायद ये लाशों के ढेर देख भारत के संप्रदाय दंगो में हुए जख्म को देखकर डरे और रोए लेकिन तबतक देर हो चुकी होगी काफी देर हो चुकी होगी।
विद्यार्थी जी पत्रकारिता में अपने उद्देश्य स्पष्ट करते हुए बताते है :
‘किसी की प्रशंसा या अप्रशंसा, किसी की प्रसन्नता या अप्रसन्नता, किसी की घुड़की या धमकी हमें अपने सुमार्ग से विचलित न कर सकेगी. सत्य और न्याय हमारे भीतरी पथ प्रदर्शक होंगे. सांप्रदायिक और व्यक्तिगत झगड़ों से ‘प्रताप’ सदा अलग रहने की कोशिश करेगा. उसका जन्म किसी विशेष सभा, संस्था, व्यक्ति या मत के पालन-पोषण, रक्षण या विरोध के लिए नहीं हुआ है, किन्तु उसका मत स्वातंत्र्य विचार और उसका धर्म सत्य होगा.
हम जानते हैं कि हमें इस काम में बड़ी-बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा और इसके लिए बड़े भारी साहस और आत्मबल की आवश्यकता है. हमें यह भी अच्छी तरह मालूम है कि हमारा जन्म निर्बलता, पराधीनता और अल्प सत्ता के वायुमंडल में हुआ है. तो भी हमारे हृदय में सत्य की सेवा करने के लिए आगे बढ़ने की इच्छा है.’
क्या ऐसे आदर्श कोई पत्रकार रख सकता है और उन आदर्शो को गणेश शंकर विद्यार्थी जैसा यथार्थ जीवन में दे सकता है क्या ? आजकल तो आप बटवा रखते है क्या? , आपको आम पसंद है क्या ?, आप थकते नहीं है क्या या फिर बहुत कुछ हुआ है बहुत कुछ होना है जैसे सवाल ही पूछे जाते है और ऐसे सवालों पर रामनाथ गोएंका जैसे अवार्ड देने की बस अब देर है , क्या कहा दे भी चुके है ऐसे लोगो को , हाय दुर्भाग्य पत्रकारिता के... तुझ पर रोना आए !
विद्यार्थी जी ने इस सवाल पर की वो पत्रकारिता किसकी करेंगे और किसके पक्ष में होंगे ,इसपर वो लिखते है :
‘हम न्याय में राजा और प्रजा दोनों का साथ देंगे, परन्तु अन्याय में दोनों में से किसी का भी नहीं. हमारी यह हार्दिक अभिलाषा है कि देश की विविध जातियों, संप्रदायों और वर्णों में परस्पर मेल-मिलाप बढ़े.’
यहां इस बात पर ध्यान देने की बात है विद्यार्थी जी विविधिता अर्थात डायवर्सिटी के पक्षधर है ना की पूरे राष्ट्र को हिन्दू या एक विचार में रंग देने के पक्ष में है।
आज के ऐसे वक्त में जब है पत्रकार भटक जा रहा है या गलती कर रहा है जानबूजकर और फिर माफी मांगता फिर रहा है तब विद्यार्थी जी अपने लेख में अपने उद्देश्यों में भटकाव वाली स्थिति को अपनी मौत के समान मानते है। ऐसी स्थिति को स्पष्ट करते हुए विद्यार्थी जी आगे लिखते है :
‘जिस दिन हमारी आत्मा ऐसी हो जाए कि हम अपने प्यारे आदर्श से डिग जावें. जान-बूझकर असत्य के पक्षपाती बनने की बेशर्मी करें और उदारता, स्वतंत्रता और निष्पक्षता को छोड़ देने की भीरुता दिखावें, वह दिन हमारे जीवन का सबसे अभागा दिन होगा और हम चाहते हैं कि हमारी उस नैतिक मृत्यु के साथ ही साथ हमारे जीवन का भी अंत हो जाए.’
आज के दौर में है क्या ऐसा कोई पत्रकार जो ऐसे आदर्श को अपने जीवन का यथार्थ बनाकर जीवन गुजार दे पत्रकारिता करते हुए आमजनों की? नही है और है तो कुछ है । इस लेख का बस यही उद्देश्य है की इसे पढ़कर लोग विद्यार्थी जी से परिचित हो और उनके लिखे को पढ़कर पत्रकारिता और पत्रकार को समझे ।
नमन माटी के उस लाल को जिसे लील गई कानपुर की वो खूनी सांप्रदिक लड़ाई जिसमें हिंदू से मुस्लिम नही लड़े बल्कि एक मां के दो बेटे लड़े और अपने झगड़े में मार दिया गणेश शंकर विद्यार्थी को।
(ऐसी निर्भीक आंखों की तारीफ़ होनी चाहिए)
नोट:
1. ये लेख गणेश शंकर विद्यार्थी जी के पत्रकारिता जीवन का परिचय करवाना अपना मूल लक्ष्य मानता है इसलिए इसमें विद्यार्थी जी के जीवन के बहुत से प्रेरक और महत्वपूर्ण प्रसंग जैसे उनका यूपी कांग्रेस का अध्यक्ष होना , गांधी जी से मिलना या फिर उनका महदूर हित में कार्य करना नहीं लिखा जा रहा है।
2. इस लेख को लिखते हुए चार अन्य लेखों और एक रिसर्च पेपर को श्रोत रूप में प्रयोग किया गया है ।
. The wire के अटल तिवारी जी का लेख (https://m.thewirehindi.com/article/ganesh-shankar-vidyarthi-dainik-pratap-indian-journalism-godi-media/38276/amp)
. आउटलुक का लेख (https://www.outlookhindi.com/amp/view/general/special-article-of-jaishankar-gupta-on-the-martyrdom-of-ganesh-shankar-vidyarthi-25472)
. सत्याग्रह के हेमंत कुमार पांडेय जी का लेख ( https://satyagrah.scroll.in/article/105734/ganesh-shankar-vidyarthi-life-work-profile)
. The lallantop का लेख (https://www.thelallantop.com/bherant/interesting-facts-about-ganesh-shankar-vidyarthi-on-his-birthday/amp/)
. JSTOR से इस्तेमाल किया गया रिसर्च पेपर (https://www.jstor.org/stable/44145530?seq=1)
और चित्र और कार्टून साभार विभिन्न वेब पोर्टल से।