बूढ़ी दादी की दिल्ली बनाम राजधानी दिल्ली

गुप अंधेरे में घर की चौखट पर खड़ी बूढ़ी अम्मा धुंधली आँखों से देखते हुए कहती हैं कि उसके घर के उपर से बिजली के तार गए तो हैं पर घर में बिजली नहीं आ पाई है। रात को जब इन बड़े-बड़े मकानों में लाईट जलती है तो उसी रौशनी में घर का अंधेरा छंटता है।

May 31, 2021 - 08:36
December 8, 2021 - 12:29
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बूढ़ी दादी की दिल्ली बनाम राजधानी दिल्ली
Old grandmother's house

ये जहां इतना खूबसूरत कहाँ होगा..

मेरे सर को छत नसीब नहीं और तेरे सामने खूबसूरत मकां होगा...

गुप अंधेरे में घर की चौखट पर खड़ी बूढ़ी अम्मा धुंधली आँखों से देखते हुए कहती हैं कि उसके घर के उपर से बिजली के तार गए तो हैं पर घर में बिजली नहीं आ पाई है। रात को जब इन बड़े-बड़े मकानों में लाईट जलती है तो उसी रौशनी में घर का अंधेरा छंटता है। तंग गलियों में बना दादी का घर जिसमें न कोई खिड़की है और न ही कोई रोशनदान, एक दरवाजा है जिसके बंद होने पर दिन में कमरे में अँधेरे जैसा माहोल रहता है, और रात का तो कहना ही क्या ?  

गर्मी के बारे में दादी से पूछने पर वो गुस्से में कहती हैं कि आजकल तो बच्ची ये हवा भी नहीं चलती, धूप है जो निकलती है और जीना मुहाल कर देता है। इस गर्मी में न तो घर में बसर है और न ही बाहर , पर इस दिन में उजाले का सहारा सूरज ही है। रात में तो गर्मी के साथ ही अंधेरे का भी कोई समाधान नज़र नहीं आता।

दादी कहती हैं कि सरकार ने झुग्गी और रिहाईशी बिल्डिंगों के बीच एक दीवार खड़ी कर दी है। ये दीवार मानो किसी सरहद सी मालूम होती है। जो अमीर और गरीबी के बीच खींची गई हो। जिसके दो तरफ दो तरह के लोग बसते हैं। दादी कहती हैं कि बरसात के दिनों में घर में पानी टपकता है और हम छत पर एक तिरपाल तक की व्वस्था नहीं कर पाते हैं, वहीं सामने बिल्डिंग पर बिल्डिंग खड़ी हो जाती है।

एक दिल्ली में कितनी दिल्ली रहतीं हैं, इसका अंदाजा दिल्ली के रंगपुर बस्ती में खड़े होकर महसूस किया जा सकता है। दादी कहती हैं कि इन शामों के बीच का अंतर हमारी गरीबी ही है और कुछ सरकार द्वारा खड़ी की गई दीवारें। दादी दुखी हैं, वो अपनी परिस्थितियों पर कहती हैं कि क्या करोगी बिटिया हमारी गरीबी जानकर, “हम पैदा गरीब हुए थे, मर भी जाएंगे इसी गरीबी में, शायद हमारे भाग्य में यही लिखा हुआ है।“ सुविधाएँ क्या होती हैं ये हमने कभी जाना ही नहीं। उनके घरों में एसी (ac) लगी है और हमारे घर में बिजली तक नहीं पहुंची है।  

 

दादी की कहानी इस देश की कोई नई बात नही है, आप भारत के किसी भी कोने में चले जाएँ, ये समस्या आम बात है। हो सकता है कि सरकार में संवेदना मर गई हो पर आम लोगों के मन में सवाल का न उठना मरी हुई नागरिकता को प्रदर्शित करता है। ये सवाल उठना भी लाजमी है कि एक समाजवादी, लोकतांत्रिक राष्ट्र में अमीरी और गरीबी के बीच इतनी खाई क्यों है ? एक राष्ट्र एक संविधान की बात करने वाला देश दो भागों में बटा हुआ क्यों प्रतीत होता है ?

 

जहां एक ओर शाम को एक आदमी फिटनेस बैंड,घड़ी पहन कर एक्स्ट्रा कैलेरीज को घटाने के लिए घंटों ट्रेडमिल पर दौड़ता है, वहीं बूढ़ी दादी हैं जो सरकार द्वारा बंट रहे मुफ्त खाने की और दौड़ती हैं, की कहीं खाना खत्म न हो जाए। ये कहना कितना बड़ा छलावा है कि देश तरक्की पर है या हम विकसित होते जा रहें हैं। अगर हम विकास कर भी रहें हैं तो उसके मायने कौन तय करेगा, क्या उस विकास में बूढ़ी दादी को,दादी के घर को शामिल नहीं किया जाएगा?

जहां देश  का एक बड़ा तबका अपनी मूलभूत जरूरतों तक को पूरा नहीं कर पा रहा है, उसके पास दो वक्त की रोटी तक नहीं है और सरकारें हैं की विश्व गुरु बनने के सपनों का राग अलाप रहीं हैं।

जहां एक तरफ देश में बिजली, साफ पानी, रोजगार, शिक्षा, सुरक्षा जैसी अन्य जरूरतें तक नहीं पूरी हो पा रहीं हैं, उस देश में रोजाना नागरिकता, गाय-गोबर, चीन-पाकिस्तान, हिंदू-मुश्लिम जैसे मुद्दों पर घंटों बहस होती है। जिस देश में भूख और गंदा पानी पीने से लाखों लोग मर जा रहे हैं वह देश वैक्सीन के दम पर क्या ही जीने की उम्मीद रखें। ये कहना गलत नही है कि देश में लोग कोरोना की बजाए असमानता और अभावों से अधिक मर रहें है और शायद यही स्थितियां रही तो शायद आगे भी मरते जाएंगे।