सावरकर : विरोधाभास और विवाद
आज के वक्त में सावरकर के विषय में या तो उन्हे खारिज कर देने या उन्हे वीर कह देना दोनो ही गलत है, सावरकर के विरोधाभासी और विवादित व्यक्तित्व को समझकर ही कोई राय बनाई जानी चाहिए।
विभिन्न विचारधारा के लोगों के पास अपने अपने नायक और अपनी अपनी कहानी होती है जो उन्हे संगठित करके रखती है।
लेकिन तब क्या जब एक लंबे संघर्ष के बाद एक विचार दूसरे पर जीत जाता है तब क्या दूसरे विचार को समझने का या उस पर राय बनाने के लिए उसे प्रयाप्त जगह चर्चा में दी जाती है ?
भारत को आजादी मिलने के बाद साफ था कि अब भारत का विचार भारत की आजादी के लिए संघर्ष करने वाले कांग्रेस के विचार से ज्यादा मेल खायेगा और ऐसा इसलिए होगा क्योंकि कांग्रेस को स्वतंत्र संग्राम के संघर्ष का प्रणेता माना गया जो सही था उनके स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान के हिसाब से।
लेकिन एक बात जो विचार करने योग्य है क्या कांग्रेस के सिवा क्या कोई और विचारधारा या समूह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में नहीं थे ? ये प्रश्न वर्तमान में एक विशेष दल के सत्ता में काबिज होने के बाद बार-बार कुछ इतिहासकार पूछ रहे है और कुछ नेता चुनावी रैलियों से इतिहास बदलने की बात जाहिर करते रहे हैं।
वैसे तो इस प्रक्रिया में जिसमे सत्ता का केंद्र बदलता है तब जाहिर है नया विचार जो सत्ता में जब भी आया है वो अपने प्रणेता लेकर आया है, अपने आदर्श भी साथ लेकर आता है और अपने चिन्ह लेकर आता है जिससे वो खुद को चिन्हित करवाए जाने की इच्छा रखता है ।
लेकिन इस प्रक्रिया के कारण जो समस्या सबसे बड़ी बनकर सामने आती है राष्ट्र के पास अपना एक स्थाई आइकॉन नही होता है। जैसे जब कांग्रेस सत्ता में होती है तब राष्ट्र के मुख्य आइकॉन के तौर पर महात्मा गांधी , जवाहरलाल नेहरू और कांग्रेस के गांधी परिवार के अन्य नेताओ के बाद राज्य चुनावों के हिसाब से कभी राजेंद्र प्रसाद , कभी सरदार पटेल और राष्ट्र के मुख्य आइकॉन कांग्रेस जब तक सत्ता में थी ये ही रहे कुछ प्रमुख रहे, कुछ गौण रहे लेकिन रहे जरूर।
अब सत्ता बदलने के बाद एक विशेष दल , विनायक दामोदर सावरकर को जिन्हे वो अपना प्रेरणा श्रोत मानता है को राष्ट्र के मुख्य प्रणेता के रूप में दिखा रहा है। इसके लिए वो पहले कांग्रेस के आइकॉन जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गांधी पर नए मिथक बनाता है ,झूठ फैलाता है और उनके खिलाफ नफरत दर्शाता है, इसी क्रम में आप नेहरू और गांधी पर फैलाए गए झूठ को देख सकते है और इसी क्रम में गांधी के हत्यारे का देवीयकरण देखते है और गांधी की हत्या को वध कहना आम जन की भाषा में जानबूझ कर डाल दिया जाता है। साध्वी प्रज्ञा के बयान , ग्वालियर में गोडसे मंदिर या फिर गांधी के पुतले को गोली मारना सब एक नए आइकॉन के लिए पुराने आइकॉन को मिटाने की कोशिश है।
इसी कड़ी में अब सावरकर आएं है, दक्षिणपंथी उन्हे वीर कहते है ( इतिहासकारों का मानना है सावरकर ने स्वयं ही स्वयं को वीर की उपाधि दी है) और वामपंथी उन्हे माफी मांगने वाला बताते है और सावरकर के पूजन को , ग्लोरिफिकेशन को एक मेमने को शेर बनाने की प्रक्रिया कहते हैं।
इन्हीं दो विपरीत ध्रुवों के बीच कहीं सावरकर है।
सावरकर के लिए पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई ने कहा था :
"सावरकर माने तेज, सावरकर माने त्याग, सावरकर माने तप, सावरकर माने तर्क, सावरकर माने तथ्य, सावरकर माने तारुण्य, सावरकर माने तीर, सावरकर माने तलवार, सावरकर माने तिलमिलाहट."
तो 1857 की क्रांति के 100 वर्ष होने के उपलक्ष्य में 1957 में प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सावरकर के साथ मंच साझा करने से इंकार कर दिया। और इसका कारण शायद यह हो सकता है की दोनो के बीच राष्ट्र के विचार को लेकर अंतर का होना।
लेकिन फिर 1980 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी सावरकर को एक पत्र में "रिमार्केबल सन ऑफ इंडिया"कहकर संबोधित करती है।और उनके जन्म के शताब्दी वर्ष को मनाने की बात लिखती है।"
लेकिन फिर राहुल गांधी एक पब्लिक रैली में कहते है ," मेरा नाम राहुल गांधी है , राहुल सावरकर नही, मैं माफी नहीं मांगूंगा"।
और बात यहीं नहीं रुकती कांग्रेस की महाराष्ट्र इकाई सावरकर को स्वंत्रवीर मानती है और स्वतंत्रता संग्राम का नायक मानती है।
किसी के लिए भी ये समझना बहुत कठिन है क्यों कांग्रेस के अंदर सावरकर को लेकर इतने मतभेद है और क्यों भारतीय जनता पार्टी के अंदर गांधी और नेहरू को लेकर इतनी कुंठा है?
दोनो विचारधाराओं के साथ एक दिक्कत तो मुख्य रूप से है वो पूर्ण रूप से या तो सावरकर का देवीयकरण कर रहे है या फिर उनका विरोध कर रहें है।
मैं एक इतिहास के विद्यार्थी के तौर पर अपनी सीमित और लगातार विकसित समझ के आधार पर इतना कह सकता हूं जो हमे इतिहास के तथ्यों से मिलता है की:
सावरकर अपने शुरुआती सालों में एक क्रांतिकारी थे वो भारत की आजादी के लिए अग्रसर थे , अंडमान की कालापनी की सजा के दौरान उन्होंने बहुत सारे माफी नामे लिखे और उसके बाद जब उन्हें 1937 में रत्नागिरी में रखा गया तब से लेकर उनके निधन तक उनका भारतीय आजादी में कोई प्रत्यक्ष योगदान ढूंढना मुश्किल है लेकिन सावरकर को चाहने वाले कहते है वो राजनीतिक रूप से सक्रिय न होकर सामाजिक कुरीतियां को हटाने के लिए सामाजिक कार्य करने लगे थे जैसे जाति शोषण रोकना , दलितों को मंदिरों में प्रवेश देना और इसके लिए वो अंबेडकर द्वारा सावरकर के लिए कहे गए वक्तव्यों का सहारा लेते है जिसमे अंबेडकर सावरकर की प्रशंसा करते हुए कहते है" among the very few who have realized” that “it is not enough to remove untouchability; for that matter you must destroy chaturvarnya.”
सावरकर उन चुनिंदा लोगों में है जिन्होंने ये समझा है की छुआछूत को हटाना काफी नहीं है , चतुरवर्ण व्यवस्था को ही नष्ट करना होगा।
लेकिन अगर सावरकर का इतिहास इतना सुलझा हुआ होता तो क्या उनका इतना विरोध होता ??
जहां एक तरफ सावरकर अपनी पुस्तक को "first war of Indian independence" कहते है ( 1857 को सैनिक विद्रोह न कहकर स्वतंत्र संग्राम कहने वाले सावरकर पहले व्यक्ति थे ।
जहां वो अपनी इसी पुस्तक का अंत इस शेर से करते है
"गाजियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की, तख्त-ए- लंदन तक चलेगी तेग हिन्दुस्तान की" और ये शेर बहादुर शाह ज़फ़र के दरबार का चित्रण करते हुए लिखते है।
वहीं कुछ इतिहासकारों का कहना है उन्होंने मुस्लिम महिलाओं के बलात्कार को जस्टिफाई करने की कोशिश की थी अपने पुस्तक सिक्स ग्लोरियस एपोक्स ऑफ इंडियन हिस्ट्री में।
लेकिन क्या मामला यही खत्म जो जाता है कुछ इतिहासकारों का कहना है सावरकर को देश का नेशनल सिक्योरिटी का प्रणेता माना जाना चाहिए क्युकी सावरकर ही थे जिन्होंने ये अनुमान लगाया था की 1930 के आसपास ब्रिटिश सेना में मुस्लिम सैनिकों का ज्यादा अनुपात हैं और इसके कारण ब्रिटिश सरकार को मुस्लिम लीग की बात माननी पड़ती है और बाद में आजादी तक सावरकर के प्रयासों के कारण सेना में हिंदू और सिख सैनिक का अनुपात मुस्लिम सैनिकों से ज्यादा हो गया जिसके कारण भारत को पाकिस्तान से 1948 के युद्ध में जीतने में आसानी हुई।
लेकिन कहानी इतनी सुलझी हुई होती तो क्या ये इतनी आसान होती। कुछ इतिहासकारों का मानना हैं आजादी के बाद सिर्फ गांधी और कांग्रेस के योगदानों को स्वंत्रता संग्राम में पढ़ाया गया जिसके कारण बाकी नायकों को भुलाने की कोशिश हुईं और अब जब सावरकर की विचारधारा के लोग सत्ता में है तब अब हम सावरकर का चित्र संसद में लगाएंगे , अंडमान जेल में लगाएंगे सावरकर के लिए प्लेक और सावरकर को भारत रत्न देंगे और स्कूली किताबों का सिलेबस बदलेंगे जिसके तहत हम सावरकर को न्याय देंगे ऐसा एक तबके के इतिहासकारों और नेताओ का मानना है।
लेकिन ये कहानी इतनी आसान नहीं है। बहुत सारे विरोधाभासी बयान और तथ्यों का समन्वय है सावरकर ।
कभी कभी सावरकर के वीर नाम को लेकर एक वर्ग जब सावरकर को प्रणेता मानने वाले वर्ग को व्यंग का पात्र मानता है तब दक्षिणपंथी कहते है नेहरू ने खुदको भारत रत्न दिया था । ये उसने ये किया तुमने ये किया के कारण इतिहास पर चर्चा रूककर लाठी भांजने की प्रक्रिया बनकर रह जाती है।
अंत में आज जो सावरकर को अपना प्रणेता माने है मूलरूप से संघ को मानने वाले लोग वो सावरकर का संघ पर नीचे लिखा कटु व्यंग पढ़कर हैरान होंगे और शायद एकबार विरोध भी कर दे सावरकर का।
सावरकर संघ के कार्यकर्ता के लिए कहते थे
"वो पैदा हुआ, संघ का कार्यकर्ता बना और मर गया"
और सबसे बड़ा विरोधभास यही है सावरकर को सबसे उग्र रूप से अपना नेता मानने वाले किसी न किसी रूप में संघ से जुड़े हुए आम रूप में पाए जाते है।
लेकिन अगर यहीं तक विरोधाभास होते तो शायद सावरकर सबसे विवादित व्यक्ति न होते ।
अक्सर इतिहास और उसके किरदार को देखने का नजरिया राजनीति से प्रेरित पाया जाता है। सावरकर के किस्से में भी यही हाल है, सावरकर का महत्व उन्हे मानने वाले राजनीतिक दल के बहुमत के साथ बढ़ता जायेगा और जब विपरीत राजनीतिक दल सत्ता में आएगा तब उसके सांस्कृतिक कार्यक्रम के तहत वो अपने नायकों को प्रमुख रूप से आगे रखेंगे। इसमें कल को कोई आश्चर्य ना हो जब कल नया सत्ता दल पुराने आइकॉन ( अभी जो सावरकर है) को तोड़ने के लिए नए झूठ और नए सच लेकर आए