नेहरू से जुड़े मिथकों की हकीकत
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के विषय में जो मिथक है उनका सत्य और जवाहरलाल को समझने की कोशिश ।
आज सभी दिनों जैसा ही एक आम सा दिन है जो महत्त्वपूर्ण होता है भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की पुण्यतिथि के रूप में।
14 नवंबर 1889 को जन्मे नेहरू की आज के वक्त में क्या प्रासंगिकता है या आज के बदलते परिवेश में नेहरू का क्या महत्व है; इस विषय पर विचार करना आज और भी आवश्यक हो जाता है जब सत्ता के शीर्ष पर आसीन राजनीतिक दल, उनके सांस्कृतिक दल और पदस्थ सत्ताधीशो के केंद्र में हमेशा से नेहरू की असमर्थता और असफलता रही हो। जरूरी नहीं है की जो भी आलोचना इन दलों, उसके राजनीतिक कार्यकर्ता तथा नेताओ द्वारा नेहरू के कार्यों, विचार और व्यवहार की गई हो उसका कोई अकादमिक, एतिहासिक आधार हो।
लेकिन इससे पहले ये लेख प्रथम प्रधान मंत्री पर लगे आरोपों पर तजदीक करे और एतिहासिक संदर्भों के आधार में एक समझ विकसित करने के प्रयत्न करें इससे पहले इस विषय में सोचने की आवश्यकता है कैसे जो नेहरू स्वयं के राजनीतिक दल के द्वारा हाशिए में धकेल दिए गए थे कैसे वो फिर से अपने आपको विमर्श के केंद्र में पाते है और कैसे नेहरू जी भूले बिसरे हो गए थे वो फिर से भारतीय चिंतन के शीर्ष पर आए।
अपनी पुस्तक "नेहरू: मिथक और सत्य " की प्रस्तावना में पत्रकार पीयूष बबेले लिखते है :
"नेहरू तो मेरे दिमाग में तब और जोरदार ढंग से आए जब भारतीय जनता पार्टी ने 2013 में नरेंद्र मोदी को अपना प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किया. इस घोषणा के साथ ही मुझे यह बात स्पष्ट होने लगी कि आने वाले समय में सरदार वल्लभ भाई पटेल सामाजिक विमर्श के केंद्र में आएंगे और पंडित नेहरू की निंदा के नए बहाने जरूर खोजे जाएंगे।"
और फिर इसके बाद क्या होता हैं हम सब भली भांति अवगत है , विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफार्म ( व्हाट्सएप, ट्विटर, फेसबुक , आदि) और यूट्यूब पर नेहरू के विषय में विभिन्न झूठ और अर्ध सत्य को प्रचारित और प्रसारित किया गया और सही सूचना के आभाव में ये झूठ सामाजिक स्वीकार्यता ( विशेष सत्ता दल का बहुमत पाना लोक सभा चुनावों में) के साथ मिथक बन जाते है और नेहरू के विषय में उभरने वाले हर विमर्श के केंद्र में नेहरू पर बने ( मैन्युफैक्चर्ड) मिथक स्थापित मानक मान लिए जाते है।
ये जान लेने के बाद कैसे नेहरू के विषय में मिथकों को प्रचारित और प्रसारित किया गया अब ये जानते है कौन से मिथक और झूठ नेहरू के विषय में बोला गए।
पहला झूठ: भगत सिंह , जब जेल में थे तब उनसे कोई कांग्रेस का नेता नही मिला ( बटुकेश्वर दत्त और विनायक दामोदर सावरकर का नाम भी प्रधान मंत्री ने लिया था)
झूठ बोला गया : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के द्वारा
कहां झूठ बोला गया : बिदार कर्नाटक ( चुनावी रैली में चुनावी मंच से)
कब: 9 मई 2018
एतिहासिक तथ्य क्या है: जवाहरलाल नेहरू ,8 अगस्त 1929 को भगत सिंह से लाहौर जेल में मिलते है।
सोर्स: वेरिफाइड कॉपी ,10 अगस्त 1929 के ट्रिब्यून अखबर की नेहरु स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय , नई दिल्ली से मिली है।
दूसरा झूठ : नेहरू ने यूएनएससी की स्थाई सदस्यता की सीट ठुकरा दी थी ।
झूठ बोला गया: रविशंकर प्रसाद के द्वारा
कब : मार्च 2019
एतिहासिक तथ्य: भारत को यूएनएससी की स्थाई सदस्यता की सीट कभी ऑफर ही नही की गई थी।
सोर्स: अंग्रेजी अखबार " द हिंदू" ने गुरुवार मार्च 14 ,2019 को अपने अखबार में सितंबर 28,1955 के अपने अखबार का एक क्लिपिंग छापा।
क्लिपिंग में क्या था? : संसद में नेहरू द्वारा दिया गया जवाब था जिसमें नेहरू ने डॉक्टर जे एन पारेख के प्रश्न का उत्तर दिया था । जब डॉक्टर जे एन पारेख द्वारा पूछा गया था:
"whether India had refused a seat informally offered to her in the U.N. Security Council. "
कि क्या भारत ने अनौपचारिक रूप से यूएनएससी के सीट को ठुकराया हैं क्या ?
नेहरू का जवाब
"“There has been no offer, formal or informal, of this kind. Some vague references have appeared in the press about it which have no foundation in fact. The composition of the Security Council is prescribed by the UN Charter, according to which certain specified nations have permanent seats. No change or addition can be made to this without an amendment of the Charter. There is, therefore, no question of a seat being offered and India declining it. Our declared policy is to support the admission of all nations qualified for UN membership"
आसान भाषा में समझे तो नेहरू ने ना कहा। नेहरू ने कहा फॉर्मल , इनफॉर्मल किसी भी प्रकार से ऐसा कोई ऑफर या प्रस्ताव नहीं आया है।
अर्थात राजनैतिक लाभ के लिए रविशंकर प्रसाद के द्वारा इस बारे में झूठ बोला गया।
तीसरा झूठ : नेहरू के बारे में किसी और का कथन नेहरू का कथन बता दिया गया जिसके आधार पर नेहरू के चरित्र को कमजोर किया गया।
कथन: I am English by education, Muslim by culture and Hindu merely by accident”
झूठ बोला गया: तेजस्वी सूर्या के द्वारा (हालांकि इनके अलावा ये झूठ और भी लोगों द्वारा बोला गया है पंरतु इनको इंगित करने के पीछे की वज़ह इनकी जिम्मेदारियां है यानी नए भारत के नेता द्वारा अपने ही देश के प्रथम प्रधानमंत्री के विषय में झूठ का बोला जाना ये सांसद सदस्य के मर्यादित आचरण पर दाग है।
कब : दिसंबर 20, 2013 ( हालांकि उस वक्त ये सांसद नही थे)
एतिहासिक तथ्य : यह बात किसी और ने नहीं बल्कि हिंदू महासभा के नेता एन.बी. खरे ने 1959 में कही थी नेहरू के विषय में न की नेहरु ने स्वयं अपने बारे में कहा था ।
अर्थात यहां भी राजनैतिक विचारधारा की बाबत प्रेरित तेजस्वी सूर्या द्वारा झूठ बोला गया मान लेने में हर्ज नहीं है।
इस तरह के स्पष्ट झूठ जिसमे झूठ बोलने वाले की पहचान की जा सकती है , इसके बाद सोशल मीडिया में ऐसे तमाम झूठ है जिसमे झूठ बोलने वाले का नाम या पहचान चिन्हित करना कठिन है लेकिन किसी ख़ास दल द्वारा लगातार इस तरह झूठ बोले जाने को चिंता का विषय माना जाना चाहिए।
ऐसे अनेक प्रश्न के रूप में मिथकों को पनपने और उगने का मौका दिया गया है जैसे
नेहरू ने प्रधानमंत्री बनकर सरदार पटेल से मौका छीन लिया जबकि इस विषय में गांधी के पौत्र और इतिहासकार राजमोहन गांधी एतिहासिक दस्तावेजों का प्रयोग करके इन आरोपों को निराधार बताते है।
वो पटेल और नेहरू द्वारा एक दूसरे को लिखे हुए खतों का जिक्र भी करते है।
. नेहरू पर मुस्लिम तुष्टिकरण और हिंदू धर्म के लोगो के दमन का आरोप भी लगाया जाता रहा है। नेहरू ने स्वयं शरणार्थियों के बीच कहा था :
"मेरा कहना यही है कि इन मुसलमानों ने तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड़ा है तो तुम भी इन्हें नुकसान मत पहुंचाओ। हमें तो न्याय के रास्ते पर चलना चाहिए, अगर इंसाफ का तकाजा कहे और जरूरी हो जाए तो हम पाकिस्तान से युद्ध छेड़ सकते हैं और आप लोग सेना में भर्ती हो सकते हैं।लेकिन इस तरह की नीति और कायरतापूर्ण बात गलत है।सी
ऐसे ही भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के विषय में अनेक मिथक बनाए गए हैं और उनका प्रचार प्रसार भी राजनैतिक दलों द्वारा खूब किया जाता रहा है।
हालांकि प्रधान मंत्री ये भी कहते है इन झूठ को बोलते वक्त की अगर किसी को पता हो तो वो बताए और एतिहासिक तथ्य और सत्य प्रधानमंत्री , उनके दल और उनके कार्यकरता द्वारा मैन्युफैक्चर्ड, प्रचारित , प्रसारित झूठ को गलत पाते है । ये सारे आरोप निराधार और झूठ है।
अब आज अटल बिहारी वाजपेई ( प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रेरणा श्रोत और उनके ही राजनीतिक दल से प्रधानमंत्री बनने वाले पहले नेता थे ) के नेहरू जी के निधन में 29 मई 1964 को लोकसभा में दिए भाषण के शब्दो को फिर से याद करना चाहिए:
अध्यक्ष महोदय,
एक सपना था जो अधूरा रह गया, एक गीत था जो गूँगा हो गया, एक लौ थी जो अनंत में वलीन हो गई। सपना था एक ऐसे संसार का जो भय और भूख से रहित होगा, गीत था एक ऐसे महाकाव्य का जिसमे गीता की गूँज और गुलाब की गंध थी। लौ थी एक ऐसे दीपक की जो रात भर जलता रहा, हर अँधेरे से लड़ता रहा और हमें रास्ता दिखाकर, एक प्राभात में निर्वाण को प्राप्त हो गया।
मृत्यु ध्रुव है, शरीर नश्वर है। कल कंचन की जिस काया को हम चंदन की चिता पर चढ़ा कर आए, उसका नाश निश्चित था। लेकिन क्या यह जरुरी था की मौत इतनी चोरी छिपे आती? जब संगी-साथी सोए पड़े थे, जब पहरेदार बेखबर थे, हमारे जीवन की एक अमूल्य निधि लुट गई। भारत माता आज शोकमग्न है – उसका सबसे लाड़ला राजकुमार खो गया। मानवता आज खिन्नमना – उसका पुजारी सो गया। शांति आज अशांत है – उसका रक्षक चला गया। दलितों का सहारा छूट गया। जन जन के आँख का तारा टूट गया। यवनिका पात हो गया। विश्व के रंगमंच का प्रमुख अभिनेता अपना अंतिम अभिनय दिखाकर अंतधर्यान हो गया ।
वाल्मीकि ने रामायण में भगवान राम के संबंध में कहा है कि वे असंभवों के समन्वय थे. पंडित जी के जीवन में महाकवि के उसी कथन की एक झलक दिखाई देती है. वह शांति के पुजारी, किंतु क्रांति के अग्रदूत थे. वे अहिंसा के उपासक थे. किंतु स्वाधीनता और सम्मान की रक्षा के लिए हर हथियार से लड़ने के हिमायती थे।
वे व्यक्तिगत स्वाधीनता के समर्थक थे, किंतु आर्थिक समानता लाने के लिए प्रतिबद्ध थे. उन्होंने समझौता करने में किसी से भी नहीं खाया किंतु किसी से भयभीत होकर समझौता नहीं किया।पाकिस्तान और चीन के प्रति उनकी नीति इसी अद्भुत सम्मिश्रण की प्रतीक थ। उनमें उदारता भी थी, दृढ़ता भी थी. यह दुर्भाग्य है कि इस उदारता को दुर्बलता समझा गया जबकि कुछ लोगों ने उनकी दृढ़ता को हठवादिता समझा।
मुझे याद है, चीनी आक्रमण के दिनों में जब हमारे पश्चिमी मित्र इस बात का प्रयत्न कर रहे थे कि हम कश्मीर के सवाल पर पाकिस्तान से कोई समझौता कर लें, तब एक दिन मैंने उन्हें बड़ा क्रुद्ध पाया. जब उनसे कहा गया कि कश्मीर के सवाल पर समझौता नहीं होगा तो हमें दो मोर्चों पर लड़ना पड़ेगा तो बिगड़ गए और कहने लगे कि अगर आवश्यकता पड़ेगी तो हम दोनों मोर्चों पर लड़ेंगे।किसी दबाव में आकर वो बातचीत करने के खिलाफ थे।
जिस स्वतंत्रता के सेनानी और संरक्षक थे आज वह स्वतंत्रता संकटपन्न है।संपूर्ण शक्ति के साथ हमें उसकी रक्षा करनी होगी. जिस राष्ट्रीय एकता और अखंडता के वे उन्नायक थे. आज वह भी विपदाग्रस्त है। हर मूल्य चुका कर हमें उसे कायम रखना होगा.......
..........नेता चला गया, अनुयायी रह गए. सूर्य अस्त हो गया तारों की छाया में हमें अपना मार्ग ढूंढना है. यह एक महान परीक्षा का काल है यदि हम सब अपने को समर्पित कर सकें. एक ऐसे महान उद्देश्य के लिए जिसके अंतर्गत भारत सशक्त हो, समर्थ और समृद्ध हो और स्वाभिमान के साथ विश्व शांति की चिरस्थापना में अपना योगदान दें तो हम उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित करने में सफल होंगे।
संसद में उनका आभाव कभी नहीं भरेगा।शायद तीन मूर्ति को उन जैसा व्यक्ति कभी नहीं कभी भी अपने अस्तित्व से सार्थक नहीं करेगा। वह व्यक्तित्व, वह जिंदादिली, विरोध को भी साथ लेकर चलने की वह भावना, वह सज्जनता, वह महानता शायद निकट भविष्य में देखने को नहीं मिलेगी. मतभेद होते हुए भी उनके महान आदर्शों के प्रति, उनकी प्रमाणिकता के प्रति, उनकी देशभक्ति के प्रति और उनके अटूट साहस के प्रति हमारे हृदय में आदर के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
इन्हीं शब्दों के साथ मैं उस महान आत्मा के प्रति विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं।
और इसके बाद रामधारी दिनकर की लिखी कविता अंत में नेहरू भारत के लिए क्या थे इसे दर्शाने का कार्य करती है।
समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं
गाँधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं
समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है
समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल
विचरें अभय देश में गाँधी और जवाहर लाल
( दिनकर की कविता "समर शेष है / रामधारी सिंह "दिनकर" है का एक अंश).
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