Same Sex Marriage Case, चीफ जस्टिस बोलें - "हम नीति निर्माण के दायरे में प्रवेश नहीं कर सकते। विधायिका को निर्देश नहीं दिया जा सकता।"
Same Sex Marriage Case: याचिकाकर्ताओं की तरफ से यह भी कहा गया था कि अलग-अलग धर्म और जाति के लोगों को शादी की अनुमति देने वाले स्पेशल मैरिज एक्ट की धारा 4 की मामूली व्याख्या से सारी समस्या हल हो सकती है।
सुप्रीम कोर्ट में चल रहे सेम सेक्स मैरिज केस में चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने इसके समर्थन में उठी एक दलील पर कहा कि देश का कानून किसी के सोच पर नहीं बल्कि संविधान पर चलता है।
याचिकाकर्ताओं के पक्ष के एक वकील ने कहा कि देश के छोटे-छोटे शहरों में भी अब कई युवा ऐसे हैं जो समलैंगिक शादी के पक्ष में हैं। इस पर चीफ जस्टिस ने कहा, “आप कुछ युवाओं की सोच की बात कर रहे हैं। हम इसे सुनेंगे, तो दूसरा पक्ष हमारे सामने पूरे देश के सोच को रख देगा। हमें संविधान के हिसाब से चलने दीजिए। हम भी चाहते हैं कि आप खाली हाथ न लौटें। फिलहाल कमेटी को विचार करने दिया जाए। बाकी बातों को भविष्य में उठाया जा सकता है।"
कानून की नज़र में पति-पत्नी न होने के चलते समलैंगिक जोड़े साथ में बैंक अकाउंट नहीं खोल सकते तथा अपने पीएफ या पेंशन में अपने पार्टनर को नॉमिनी भी नहीं बना सकते हैं। याचिकाकर्ताओं ने कहा कि इन समस्याओं का हल तभी होगा,जब उनके विवाह को कानूनी मान्यता मिलेगी।
याचिकाकर्ताओं की तरफ से यह भी कहा गया था कि अलग-अलग धर्म और जाति के लोगों को शादी की अनुमति देने वाले स्पेशल मैरिज एक्ट की धारा 4 की मामूली व्याख्या से सारी समस्या हल हो सकती है।
धारा 4 में यह लिखा गया है कि दो लोग आपस में विवाह कर सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट से मांग की जा रही है कि वह इतना स्पष्ट करे दें कि 2 लोगों का मतलब सिर्फ स्त्री और पुरुष ही नहीं है दो समलैंगिक जोड़े भी शमिल हैं।
सुप्रीम कोर्ट में फैसला सुरक्षित
10 दिनों तक मामले की सुनवाई में चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अगवाई वाली पांच जजों की बेंच ने कहा हम नीति बनाने का निर्देश नहीं दे सकते, हम नीति निर्माण के दायरे में प्रवेश नहीं कर सकते। “कोर्ट में एक पक्ष ने दलील दी कि सिर्फ यह ऐलान कर देने भर से कि समान लिंग वाले जोड़ों को शादी करने का अधिकार है, इससे कोई उद्देश्य पूरा नहीं होगा। इसपर सीजेआई ने कहा कि “एक संवैधानिक सिद्धांत है जिस पर हम कायम रहे हैं – हम इसके लिए विधायिका को निर्देश नहीं दे सकते।"
सुप्रीम कोर्ट ने 2013 के सुरेश कुमार कौशल बनाम नाज फाउंडेशन केस में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा 2009 में लिए गए उस फैसले को उलट दिया था जिसमें समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया गया था। कोर्ट ने दलील दी थी कि समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करने का निर्णय केवल संसद द्वारा किया जा सकता है, न्यायालय द्वारा नहीं। इसमें यह भी कहा गया था कि धारा 377 कुछ कार्यों को अपराध मानती है, न कि किसी विशेष वर्ग के लोगों को। इसने एलजीबीटक्यूआईए समुदाय के सदस्यों की बहुत कम संख्या और इस तथ्य का भी संकेत दिया कि उनमें से केवल एक अंश पर ही धारा 377 के तहत मुकदमा चलाया गया था।
2018 में सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता संबंध को अपराध के दायरे से बाहर निकाल दिया था। आईपीसी की धारा 377 ने समान लिंग के लोगों के बीच सहमति से यौन संबंध को “अप्राकृतिक अपराध” के रूप में वर्गीकृत किया है जो “प्रकृति के आदेश के खिलाफ” है। इसमें 10 साल कैद की सजा का प्रावधान है।