स्वामी विवेकानंद: एक व्यक्तित्व जिसकी सारी दुनिया थी मुरीद
एक समय जब विश्व भर की तमाम शिक्षित पीढ़ी खुद को आधुनिक बनाने के लिए पश्चिम की ओर ताक रही थी। तब विश्वभर को भारतीय संस्कृति और अतुलनीय आध्यात्मिक विरासत से रुबरू करवाने वाले स्वामी विवेकानंद जी की जीवन लीला मात्र 39 वर्षों में समाप्त हो गई। कहा जाता है कि विचार कभी नही मरते! स्वामी जी के विचारो की प्रासंगिकता आज भी उतनी ही है और तब तक रहेगी जब तक जहाँ में भारत देश रहेगा।
"उठो, जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए "।
उक्त पंक्तियां विश्व प्रख्यात आध्यात्मिक गुरु स्वामी विवेकानंद जी की हैं। जिनके विचारों और भाषणो ने भारतीयो को ही नही अपितु विश्व भर के लोगो को अपना मुरीद बना लिया था। स्वामी जी का संपूर्ण जीवन प्रेरणादायक है। उनके जीवन का हर प्रसंग आज के युवाओं को जीवन की बड़ी गहरी सीख, और नई सोच प्रदान करता है।
एक समय जब विश्व भर की तमाम शिक्षित पीढ़ी खुद को आधुनिक बनाने के लिए पश्चिम की ओर ताक रही थी। तब विश्वभर को भारतीय संस्कृति और अतुलनीय आध्यात्मिक विरासत से रुबरू करवाने वाले स्वामी विवेकानंद जी की जीवन लीला मात्र 39 वर्षों में समाप्त हो गई। कहा जाता है कि विचार कभी नही मरते! स्वामी जी के विचारो की प्रासंगिकता आज भी उतनी ही है और तब तक रहेगी जब तक जहाँ में भारत देश रहेगा।
■ नरेन्द्र से स्वामी तक:
स्वामी जी का जन्म 12 जनवरी 1863 को तत्कालीन कलकत्ता में एक चर्चित वकील विश्वनाथ सेन के घर हुआ। बचपन में उन्हे नरेन्द्र कहकर पुकारते थे । पिता की मुत्यु के बाद घर पर बड़ा आर्थिक संकट आन पड़ा था। और तभी से उनके जीवन का असली संघर्ष शुरु हुआ।
बचपन से ही स्वामी कुशाग्र बुद्धि के धनी थे, संसार की असल वास्तविकता और आध्यात्मिक रहस्य उन्हें बेचैन करते थे , जब इन तमाम प्रश्नो के जवाब किसी के पास न पाते तो जगह-जगह आश्रमो में भटकते, साधु संतो से मिलते,पर प्रश्नो की उधेड़बुन को सुलझा नही पाते। अंततः उन्हें उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस मिले और उनकी खोजो को एक राह मिली।
कुछ लोगों का मानना है कि स्वामी नाम उन्हें उनके गुरु परमहंस रामकृष्ण से मिला था, पर वास्विकता कुछ और ही थी । अमेरिका जाने से पूर्व उनके पास अमेरिकी दौरे के पर्याप्त पैसे नही थे । उनकी यात्रा का पूरा खर्च राजपूताना वंशज के खेतडी महाराज ने उठाया था। और उन्होने ही स्वामी जी को विवेकानंद नाम दिया।
रोमां रोलां ने अपनी चर्चित किताब ' द लाइफ ऑफ विवेकानंद एंड द यूनिवर्सल गोस्पल ' में इस बात का जिक्र किया है कि विश्व संसद पहुंचने के बाद 1891 में उन्होने यह नाम स्वेच्छा से अपना लिया।
◆ गुरु के जाने के बाद:
1896 में जब गुरु रामकृष्ण परहंस ने अपना नश्वर देह त्याग किया तब स्वामी जी को मार्गदर्शन की कमी महसूस होने लगी, वह घंटो अपने गुरु को याद करके ध्यान में लीन हाेते, तब स्वामी जी ने निर्णय किया, और पूर्ण रूप से गेरूआ वस्त्र धारण कर सन्यासी हो गए। तथा नंगे पाँव पूरे देश का भ्रमण कर जमीनी स्तर पर यहाँ कि समाजिक, आर्थिक , राजनीतिक समस्याओं को देखा। इसी दौरान उन्हें शिकागो में हो रहे धर्म सम्मेलन की सूचना मिली ।
■ जब बेबाक निर्भय, बेबाक और निर्भीक होकर बोले स्वामी:
( शिकागो में भाषण)
1893 में अमेरिका के शिकागो में एक विश्व धर्म परिषद आयोजित की गई थी। स्वामी जी भारत के प्रतिनिधि के रुप में पहुंचे थे। लंबे समय से गुलामी की जंजीरो में जकड़े होने के कारण भारतीयो को हेय दृष्टि से देखा जाता था। वहां कई बार प्रयास किए गए कि स्वामी जी को बोलने का मौका ही न दिया जाए, पर वहीं के एक प्रोफेसर ने स्वामी जी की मदद की।
अपने भाषण की पहली पंक्ति ही उन्होने भाइयों और बहनो से की। ऐसा संबोधन पाकर वहां के लोगो को काफी आश्चर्य हुआ। फिर तो उनके दमदार भाषण के बाद विश्व उनके विचारो का मुरीद हो गया। तीन वर्ष तक वह अमेरिका में ही रहे । एक बडी तादात में लोग उनसे जुड़ने लगे । अमेरिका में कई स्थानो पर उन्होने रामकृष्ण परहंस मिशन की शाखाएं खोली।
स्वामी जी के जीवन के कुछ प्रंसग जो देते है जीवन की समझ बढ़ाने का मंत्र और एक नया दृष्टिकोण:-
■ जीत और हार से पहले जरुरी है एकाग्रता:
स्वामी जी ने एक लंबा वक्त अमेरिका में बिताया, एक बार वह पुल के ऊपर से गुजर रहे थे। तभी पुल के पास उन्होने कुछ लड़को को निशाना लगाते देखा। पर कोई भी लड़का निशाने के करीब नही पहुंच पा रहा था। तभी उनमें से किसी ने कहा कि बोर्ड होल्डर थोडा करीब ला दिया जाए जिससे निशाना साधा जा सके। तभी स्वामी जी वहाँ पहुंचे और उन्होने उतनी ही दूरी से एक के बाद एक निशाना लगाया। यह दृश्य देख सभी दंग थे। स्वामी जी ने उन्हें मंजिल दूर होने के भय से इरादा न बदलने की सीख दी।
★इच्छा सम्मान:
एक बार एक विदेश यात्रा से लौटते वक्त स्वामी जी के पास एक महिला आई। स्वामी जी अपने विचारो से हर जगह प्रसिद्धि पा रहे थे। महिला ने स्वामी के सामने विवाह प्रस्ताव रखा । और उनके सामने उनके जैसा यशस्वी , सुंदर, तीवृ बुद्धि वाला पुत्र पाने की इच्छा भी जताई। इस पर स्वामी जी ने बड़ी विनम्रता से उत्तर दिया और कहा कि मैं संन्यासी हूं,विवाह नही कर सकता। आप मुझे ही अपना पुत्र मान लें। आपको पुत्र मिल जाएगा और मुझे माँ का आर्शीवाद।
यह उत्तर पाकर वह महिला मुस्कुराई पर श्रद्धापूर्वक उन्हें नमन किया।
स्वामी जी ने जो अपनी अल्पायु में कर दिखाया वह बेहद अद्भुत , अविश्वनीय और अकल्पनीय था। उनके विचारो की गरिमा और विचारो की शुद्धता में संपूर्ण मानव जाति का कल्याण था। भारत ही नही पूरा विश्व उनके विचारो से प्रभावित था। पूरा भारत उन्हें शत् शत् नमन करता है।