भूलने की कोशिशों को आसान बनाती कविताएं

भूल जाऊं तुझे और आगे का सफ़र अकेले पूरा करूं" मुझे नहीं पता ये पंक्तियां किसकी है किसी गाने की है , किसी कविता की है या किसी चलचित्र की है या किसी रंगमंच के नाटक की। अभी जब मैं रात के दो बजे रात के एकांत में बैठे ओवरथिंकिंग के अपने पसंदीदा कार्य के उद्गम श्रोत के निकट हूं तब ये पंक्ति अभी मेरे मन में आई " भूल जाऊं तुझे और आगे का सफ़र अकेले पूरा करूं ।

August 12, 2021 - 22:57
December 9, 2021 - 10:33
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भूलने की कोशिशों को आसान बनाती कविताएं

'भूल जाऊं तुझे और आगे का सफ़र अकेले पूरा करूं' मुझे नहीं पता ये पंक्तियां किसकी है किसी गाने की है, किसी कविता की है या किसी चलचित्र की है या किसी रंगमंच के नाटक की। अभी जब मैं दो बजे रात के एकांत में बैठे ओवरथिंकिंग के अपने पसंदीदा कार्य के उद्गम श्रोत के निकट हूं तब ये पंक्ति अभी मेरे मन में आई 'भूल जाऊं तुझे और आगे का सफ़र अकेले पूरा करूं'। 

हम सब आज अपने जीवन में किसी न किसी स्थिति में अपने आपको ऐसे संकट में पाते है जब हमे अपने जीवन के बीते हुए हमारे कल के कुछ हिस्सों को भूलने का प्रयोग करना पड़ता है और न चाहने के बाद भी हम भूलना चाहते है अपने बीते हुए कल के उन सभी हिस्सों को जिनसे हमे दुख, अवसाद, घृणा, झूठ या अन्य की याद आती है और हमारे भूत का वो समय हमे फिरसे कमज़ोर ना करे इसलिए हम भूल जाने का नाटक करना चाहते है जबतक हम भूल नहीं जाते की हम क्या भूलने का नाटक कर रहे हैं और क्यों हम अपने ही कल को निगल लेना चाहते है और भूल जाना चाहते है हर वो शब्द जो हमे पीड़ा, तकलीफ और बार बार सोचने पर मजबूर करते है ।

क्या भूलने और भूल जाने की प्रक्रिया में सुख मिलेगा, जिस मानसिक शांति की तलाश में हम कोशिश करते हैं अपने भूतकाल को भूलने की या फिर भूलने का नाटक करने का प्रयत्न क्या उसमे हमे कभी सुख मिलेगा? 

हिंदी के कवि "रामेश्वर शुक्ल 'अंचल" अपनी एक कविता "भूलने में सुख मिले तो भूल जाना" में लिखते है :  

एक सपना-सा समझना ज्यों नदी में बाढ आना
भूलने में सुख मिले तो भूल जाना ।

थीं सुनी तुमने बहुत-सी जो लड़कपन में कहानी
शेष जिनकी सुधि नहीं — मैं था उन्हीं का एक प्राणी !
सोच लेना — था किसी अनजान पँछी का तराना ।

झूमते लय-भार से जिस राग के मिजराब सारे
भूल जाते वे उसे तत्क्षण — गगन ज्यों भग्न तारे
ठीक वैसे तुम मुझे यदि सुख मिले तो भूल जाना ।

भूल जाती गन्ध अपना कुँज जाती दूर जब उड़
भूल जाते प्राण काया छोड़ते ही शून्य में मुड़
हो कभी विह्वल न मेरी याद में भर अश्रु लाना ।

भूल जाता फूल डाली को क्षणों में ही बिछुड़कर
याद मेघों को न करती दामिनी भी आ धरा पर
बढ़ गया जो दीप उसमें अब न तुम बाती सजाना ।

वेदना इससे बड़ी होगी मुझे क्या और सुनकर
तुम विकल हो याद करती हो मुझे चीत्कार-कातर
क्यों उठे, मेरा वही फिर दर्द छाती का पुराना
भूलने में सुख मिले तो भूल जाना ।

भूलने का प्रयत्न करना और भूल जाना क्या इतना आसान होता है की हम सब भुला सके अपने बीते कल को और उनकी दुख देती स्मृतियों को.. 

क्या ऐसा हो सकता है की मैं भूल जाने के इस खेल में एक कच्चा खिलाड़ी हूं और कोई मुझे भुलाकर मुझे भूल जाने के इस खेल में माहिर कर सके ताकि मैं भी भूल और भुलाकर अपने वर्तमान और भविष्य में खुश रहने की कोशिश करता रहूं।

मुझे एक कविता याद आती है जिसमे कवि को भूलना सिखाने वाले के प्रति कवि ऋणी है और कवि लिखते है : 


कविता: भूलना-सीखना 
कवि: मालचंद तिवाड़ी
 
" बहुत मुश्किल नहीं होता सीखना
 सारा संसार सीखता है
 सीख-सीख कर चलता है
 नया होता रहता है
 बालक से आइन्सटाईन तलक
 बहुत मुश्किल हो जाता है भूलना
 इस शास्त्र की तो एक ही पण्डित थीं तुम
 भूल कर मुझे भूलना सिखला दिया
 देखो, मैं योगी हो गया
 भूल गया संसार को
 तुम्हें भूलने के पथ पर चलता"


हम भूलना चाहते है अपना भूत, अपना दुख, अपनी उदासी को लेकिन क्या भूलना जरूरी है? क्या हम अपनी भूलो से अपनी हारो से और अपने पुराने ज़ख्मों से आने वाले कल के घावों के लिए मलहम नही बना सकते है ? हमे सोचना होगा हम क्या क्या भूलना चाहते है, कितना भूलना चाहते है और क्यों भूलना चाहते है? रोज़ ओवरथिंकिन्ग के मेरे मानसिक तनाव के बाद भी मैं नहीं भूलना चाहता मेरी उन स्मृतियों को जिनमें स्रोत है मेरे आज का , मैं यादों के उस तालाब को नहीं सुखा देना चाहते जिसके सहारे मेरा वर्तमान सींचा जाता है और न मैं बांध बना देने के पक्ष में हूं अपने बीते हुए कल के और अपने आज के बीच में। 

हमे न भूलने के दुख से रोज़ लड़ना होगा और हमे लगेगा भूल जाना बेहतर है फिर भी न भूलना बेहतर होगा जिससे अपने वर्तमान और भविष्य में हम कम गलती करेंगे और शायद खुश भी रहे। 

नीचे एक कविता है जिसके आप बस पढ़िए समझने, याद करने की कोशिश मत कीजिए बस जैसे उठकर सुबह चेहरा धोते है वैसे ही इस कविता से अपने थके हुए मन को मलहम लगाइए ।  

कविता: भूलना नहीं है 
कवि: शशिप्रकाश

 "यह अन्धेरा
 कालिख़ की तरह
 स्मृतियों पर छा जाना चाहता है ।
 यह सपनों की ज़मीन को
 बंजर बना देना चाहता है ।
यह उम्मीद के अंखुवों को
कुतर देना चाहता है ।
इसलिए जागते रहना है,
स्मृतियों की स्लेट को
पोंछते रहना है ।

भूलना नहीं है
मानवीय इच्छाओं को ।
भूलना नहीं है कि
सबसे बुनियादी ज़रूरतें क्या हैं और क्या हैं हमारे लिए
ग़ैरज़रूरी, जिन्हें लगातार
हमारे लिए सबसे ज़रूरी बताया जा रहा है ।

भूलना नहीं है कि
अभी भी है भूख और बदहाली,
अभी भी हैं लूट और सौदागरी और महाजनी
और जेल और फाँसी और कोड़े ।

भूलना नहीं है कि
ये सारी चीज़ें अगर हमेशा से नहीं रही हैं
तो हमेशा नहीं रहेंगी ।

भूलना नहीं है शब्दों के
वास्तविक अर्थों को
और यह कि अभी भी
कविता की ज़रूरत है
और अभी भी लड़ना उतना ही ज़रूरी है ।

हमें उस ज़मीन की निराई-गुड़ाई करनी है,
दीमकों से बचाना है
जहाँ अँकुराएँगी उम्मीदें
जहाँ सपने जागेंगे भोर होते ही,

स्मृतियाँ नई कल्पनाओं को पंख देंगी
प्रतिक्षाएँ फलीभूत होंगी
योजनाओं में और अन्धेरे की चादर फाड़कर
एकदम सामने आ खड़ी होगी
एक मुक्कमल नई दुनिया।"

Abhishek Tripathi तभी लिखूंगा जब वो मौन से बेहतर होगा।